Saturday, October 3, 2009

बोलता नहीं, करता हूं


यह बात एकदम सच है कि राजनीति में भीतर आपस में कोई, किसी को भी सम्मान नहीं देता, और आम आदमी भी राजनेताओं को कोई बहुत ज्यादा आदर की निगाह से नहीं देखता। लेकिन यह भी सच है कि मलबार हिल के भाजपा विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा को, राजनीति में तो खासा सम्मान हासिल है ही, समाज भी उनको अपना गौरव मानता है। राजनीति और समाज, दोनों ही क्षैत्रों में, मंगल प्रभात लोढ़ा का नाम काफी सम्मान के साथ लिया जाता है। उसकी कई सारी वजहें हैं। छवि के मामले में भी मंगल प्रभात लोढ़ा बाकी लोगों के मामले में काफी आगे हैं। राजनीति और समाज, दोनों में उन्हें एक जुझारू और काम करने वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है।
राजनीति में इज्जत पाना बहुत मुश्किल होता है। और समाज में अपनी जगह बनाकर, उस अर्जित किए हुए गौरव को बनाए रखना तो और भी मुश्किल काम होता है। पर मंगल प्रभात लोढ़ा ने राजनीति में पूरी ईमानदारी के साथ रहते हुए, सच्चाई के साथ जो मेहनत की। साथ ही धर्म और समाज के हित है पूरी लगन के साथ जो काम किए, उन्हीं वजहों से वे सारी मुश्किलों पर आसानी से पार पाने में सफल रहे हैं। राजनीति में रहने वाले ज्यादातर लोग बोलते तो हैं, मगर काम नहीं करते। पर, मंगल प्रभात लोढ़ा कहते हैं कि ‘मै बोलता नहीं, करके दिखाता हूं।‘ विधान सभा में बैठकर, आम विधायकों की तरह अपने इलाके के विकास के वे सारे काम तो उन्होंने किए ही हैं। लेकिन बड़ा काम करने वाले अच्छे विधायक के रूप में जब महाराष्ट्र के राजनेताओं की सूची बनती है, तो मंगल प्रभात लोढ़ा का नाम उसमें सबसे ऊपर लिखा जाता है। क्योंकि उन्होंने महाराषट्र की विधानसभा में बैठकर राष्ट्रीय महत्व के ऐसे काम करके दिखाए जो दिल्ली में बैठे लोग भी सालों की कोशिशों के बावजूद नहीं कर पाए। ‘बोलता नहीं, करके दिखाता हूं‘ की अपनी इसी शैली पर उन्होंने जो कुछ करके दिखाया, उसमें राष्ट्रीय स्तर का सबसे बड़ा काम आरटीआई, यानी राइट टू इन्फॉर्मेशन का है। ये जो भ्रष्ट राजनेता और अफसर, आज अगर आप और हमसे बहुत ज्यादा डरने लगे हैं, तो वह आरटीआई ही है। जो, अब भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी का सबसे बड़ा हथियार बन चुका है। बहुत कम लोग जानते हैं कि आरटीआई के बारे में देश की किसी भी विधानसभा में सबसे पहला बिल मंगल प्रभात लोढ़ा ने ही पेश किया था। आरटीआई के बारे में पहली बार उनको उस वक्त काफी निराशा हुई, जब अपनी ही सरकार होने के बावजूद, महाराष्ट्र विधानसभा में वे उस बिल को पास नहीं करवा पाए। मगर हिम्मत नहीं हारी, और पूरी तैयारी के साथ फिर विधानसभा में आरटीआई बिल पेश किया, उसे पास करवाया और देश में आरटीआई कानून बनवाकर ही दम लिया। इसी तरह, गोवंश वध के खिलाफ भी कानून बनवाने की विधायक लोढ़ा की कोशिशें जग जाहिर है।
राजनीति को आप और हम दलदल कहते हैं। जिसे भी देखिए, हर राजनेता भ्रष्टाचार में गले तक डूबा हुआ है। लेकिन ऐसे दलदल के बीचों बीच रहकर सक्रिय राजनीति करते हुए भी मंगल प्रभात लोढ़ा ने अपने दामन पर कोई दाग नहीं लगने दिया। राजनीति में जब उतरे थे, तो वे यह प्रण लेकर उतरे थे, कि चाहे कुछ भी हो जाए, भ्रष्ट नहीं होउंगा और आम आदमी के हक के लिए लडूंगा। साथ ही अपने धर्म पर अटल रहूंगा। दरअसल, वे आम राजनेताओं की तरह नहीं सोचते। वे एक विजन लेकर राजनीति में उतरे थे, और अपने आस पास के लोगों से यह कहकर उतरे थे कि जब उनको लगेगा कि राजनीति में रहकर सामाजिक कल्याण के कामों में मुश्किलें आ रही हैं तो, वे राजनीति से दूरी बना लेंगे। लेकिन, जो अपने धर्म पर अटल रहता है, उसे अपने उद्देश्य से कोई नहीं डिगा सकता। लोढ़ा को आज आम आदमी और समाज के हक में लड़ने वाले नेता के रूप में जाना जाता है। आप याद किजिए, पालीताणा के मंदिरों की मूर्तियों तोडने का मामला हो या पालीताणा की पवित्रता को बरकरार रखने की बात, या कुर्ला, मालाड़, और पायधुनी के शांतिनाथजी देरासर जैसे कई मंदिरों को बचाने का मामला हो, मंगल प्रभात लोढ़ा सबसे आगे रहे हैं, और काम करके दिखाया है। इसी तरह मीडिया में संतों की इज्जत उछालने की बात हो, या फिर मंदिरों को बचाने का मामला हो, समाज को एक करके सरकार से भिड़ने में लोढ़ा ने कोई कसर बाकी नहीं रखी। वैसे सरकार से भिड़कर आम जनता के हित में पैसला करवाने के मंगल प्रभात लोढ़ा के जो ताजा मामले हमारे सामने हैं, उनमें जेल भेज दिए गए एक मुमुक्षु को आजाद करवाने के लिए सरकार के खिलाफ लड़कर उसे झुकाने और बिड़ला जैसे देश के बड़े औद्योगिक घराने के खिलाफ लड़कर बंद कर दिए गए न्यू इरा स्कूल को फिर शुरू करवाने की जंग ने राष्ट्रीय स्तर पर काम करनेवाले फाइटर विधायक के रूप में लोढ़ा की पहचान को और मजबूती दी है।
मलबार हिल इलाके से तीन बार लगातार चुनाव जीतने के बाद विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर मैदान में उतारा हैं। लोग उनके साथ मजबूती से जुटे हुए हैं और काम करने वाले नेता की छवि है, इसलिए इलाके के लोगों का साथ भी उनको पूरा मिल रहा है। ‘बोलता नहीं, करके दिखाता हूं’, की शैली पर काम करने वाले मंगल प्रभात लोढ़ा को आप जैसे अच्छे लोगों का भी अब तक पूरा साथ मिलता रहा है। आपने भले हैं, और हमेशा से आपने भले लोगों का ही साथ दिया हैं और मंगल प्रभात लोढ़ा भले आदमी हैं, यह आप और हम सारे लोग अच्छी तरह जानते हैं। पर, राजनीति में अच्छे और भले लोगों को अपना रास्ता बनाने में मुश्किलें भी बहुत आती हैं, और कोई अगर अपना रास्ता ठीक ठाक बना ले, तो राजनीति में उस पर कांटे बिछाने वालों की भी कोई कमी नहीं होती। पर, आप अगर साथ रहेंगे, तो कांटों भरा यह रास्ता भी आसान हो जाएगा। यह कोई दंभ नहीं, बलिक विनम्रता पूर्वक सच बात है कि तीन चुनावों में तो राजनीति में मंगल प्रभात लोढ़ा का सामना करना किसी के लिए आसान नहीं रहा, और आप अगर साथ रहेंगे, तो इस बार भी उनका सामना, कोई नहीं कर पाएगा।

Friday, August 21, 2009

लेकिन बरबाद होती बीजेपी माने तब न...

-निरंजन परिहार-
शिमला में बीजेपी की चिंतन बैठक के अपने भाषण में लाल कृष्ण आडवाणी ने भले ही कहा कि जसवंत सिंह को भाजपा से निकाले जाने का उनको दुख है। लेकिन उन्होंने यह कहा कि जसवंत को निकालना जरूरी हो गया था। क्योंकि अपनी किताब में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह पार्टी के सिद्धांतों और आदर्शों के खिलाफ था। लेकिन बीजेपी के इन लौह पुरुषजी से यह सवाल करने की हिम्मत किसी ने नहीं की कि जसवंत सिंह ने तो सिर्फ अपनी किताब में ही लिखा है, लेकिन आप तो पाकिस्तान की धरती पर उनकी मजार पर गए। श्रद्धा के साथ फूल चढ़ाए। अपना सर झुकाया। जिन्ना को महान बताया। और यह भी कहा था कि जिन्ना से ज्यादा धर्म निरपेक्ष नेता भारत में दूसरा कोई हुआ ही नही। यह पूरी दुनिया जानती है कि भाजपा अपने जसवंत सिंह को बहुत बड़ा नेता बताती रही है। और सच कहा जाए तो भाजपा में जो सबसे बुध्दिजीवी और पढ़े लिखे लोग है, उनमें जसवंत सिंह सबसे पहले नंबर पर देखे जाते रहे हैं। लेकिन सिर्फ एक किताब क्या लिख दी, वे अचानक इतने अछूत हो गए कि तीस साल की सेवाओं पर एक झटके में पानी फेर दिय़ा। बीजेपी को यह सवाल सनातन रूप से सताता रहेगा कि अगर बीजेपी में रहते हुए जसवंत का जिन्ना पर कुछ भी सकारात्मक कहना पाप है तो फिर बीजेपी के लौह पुरुष, वहां पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाकर जो कुछ करके और कहके लौटे थे, वह क्या कोई पुण्य था।
बीजेपी से जसवंत सिंह की विदाई की खबर लगते ही देश के जाने माने पत्रकार आलोक तोमर ने जो सबसे पहला काम किया, वह जसवंत सिंह की पूरी किताब अच्छी तरह से पढ़ने का था। लेकिन उसके बाद भी उनकी समझ में यह तक नहीं आया कि जसवंत सिंह ने जो कुछ लिखा है, उसमें आखिर नया क्या है। उनकी राय में जसवंत सिंह की किताब एक विषय का बिल्कुल निरपेक्ष लेकिन तार्किक विश्लेषण है। मगर, इतिहास को अपने नजरिए से देखना कम से कम इतना बड़ा जुर्म तो हो ही नहीं सकता कि तीस साल से पार्टी से जुड़े एक धुरंधर नेता को अचानक दरवाजा दिखा दिया जाए। आलोक तोमर जसवंत सिंह को भाजपा से बाहर करने को उनकी बेरहम विदाई मानते हैं और यह भी मानते हैं कि बीजेपी में यह अटल बिहारी वाजपेयी के युग की समाप्ति का ऐलान है। और जो लोग ऐसा नहीं मानते, उनको अपनी सलाह है कि वे अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी के साथ खुद से यह सवाल करके देख लें कि क्या वाजपेयी के जमाने में भाजपा में जो उदारता और सहिष्णुता थी, वह अब खत्म नहीं हो गई। जवाब, निश्चित रूप से हां में ही मिलेगा। नहीं मिले तो कहना।
वह जमाना बीत गया, जब बीजेपी एक विचारधारा वाली पार्टी मानी जाती थी। उसके नेता देश को रह रह कर यह याद दिलाते नहीं थकते थे कि यही एक मात्र पार्टी है, जो हिंदू धर्म का सबसे ज्यादा सम्मान करती है। साथ ही बाकी सभी धर्मों का आदर करना भी सिखाती है। आज उन सारे ही नेताओं से यह सवाल खुलकर पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों वह पार्टी अपने एक वरिष्ठ नेता के निजी विचारों का सम्मान नहीं कर पाई। बीजेपी के नेताओं में अगर थोड़ी बहुत भी नैतिकता बची है तो वे सबसे पहले तो इस सवाल का जवाब दे कि आखिर आडवाणी का उनकी मजार पर शीश नवाकर जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताना वाजिब और जसवंत का जिन्ना पर लिखना अपराध और कैसे हो गया। और, जो सुषमा स्वराज और रवि शंकर प्रसाद बहुत उछल उछल कर जसवंत सिंह की विदाई को विचारधारा के स्तर पर पार्टी का वाजिब फैसला बता रहे थे, उनसे भी अपना सवाल है कि उनके लाडले लौह पुरुषजी ने जब जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताया था, तब उनके मुंह पर ताला क्यों लग गया था।
दरअसल, जो लोग राजनीति की धाराओं को समझते हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते है कि जो पीढ़ी अपने बुजुर्गों के सम्मान की रक्षा करना नहीं जानती सकते, उनकी नैतिकता भी नकली ही होती है। और बाद के दिनों में ऐसे लोगों का राजनीति में जीना भी मुश्किल हो जाता है। अपना मानना है कि बीजेपी में अब सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। जिसने अपने खून पसीने से बीजेपी को सींचा, देश पर राज करने के लिए तैयार किया। ऐसे दिगग्ज नेता भैरोंसिंह शेखावत के सम्मान को बीजेपी के आज के नेताओं ने ही चोट पहुंचाई। पूरा देश जानता है कि शेखावत के प्रति आम जनता के मन में जो सम्मान है, और देश में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है, उसके सामने राजनाथ सिंह रत्ती भर भी कहीं नहीं टिकते। लेकिन फिर भी उन्होंने शेखावत को गंगा स्नान और कुंए में नहाने के फर्क का पाठ पढाने की कोशिश की। अब जसवंत सिंह को उन्होंने राजनीति में किनारे लगाने की कोशिश की है। पार्टी से जसवंत के इस निष्कासन को अपन सिर्फ कोशिश इसलिए मानते हैं क्योंकि अपनी जानकारी में जसवंत सिंह हारने की मिलावट वाली मिट्टी से नहीं बने हैं। वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि देश जब जब चिंतन करेगा, तो जिन्ना के मामले में लाल कृष्ण आडवाणी और उनके बीच होने वाली तुलना में उनसे नीचली पायदान पर तो आडवाणी ही दिखाई देंगे। क्योंकि उन्होंने तो लिखा भर है। आडवाणी की तरह जिन्ना के देश जाकर उनकी मजार पर फूल चढ़ाने और सिर को झुकाने के बाद कम से कम यह बयान तो नहीं दिया कि जिन्ना महान थे। फिर देर सबेर बीजेपी की भी अकल ठिकाने आनी ही है। उसे भी मानना ही पड़ेगा कि आडवाणी के अपराध के मुकाबले जसवंत के जिन्ना पर विचार अपेक्षाकृत कम नुकसान देह है।
बीजेपी चाहती तो, जसवंत की किताब को जिन्ना पर उनके निजी विचार बता कर, अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने के साथ पूरे मामले को कूटनीतिक टर्न दे सकती थी, जैसा कि राजनीति में अकसर होता रहा है। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि राजनाथ सिंह के पास बीजेपी जैसी देश की बड़ी पार्टी के अध्यक्ष का पद तो है, पर, तीन साल बाद भी ना तो वे इस पद के लायक अपना कद बना पाए और ना ही उनमें कहीं से भी इसके लायक गंभीरता, योग्यता और बड़प्पन दिखाई दिया। इसी वजह से कभी वे शेखावत को राजनीति सिखाने की मूर्खता करने लगते हैं तो कभी राजस्थान की सबसे मजबूत जनाधार वाली उनकी नेता वसुंधरा राजे को पद से हटाने का अचानक ही आदेश दे बैठते हैं। राजनाथ सिंह के राजनीतिक कद को अगर आपको नापना ही हो तो भैरोंसिंह शेखावत से तो कभी उनकी तुलना करना ही सरासर बेवकूफी होगी। और भले ही राजनाथ सिंह ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का आदेश दिया हो, फिर भी उनसे तुलना करना भी कोई समझदारी नहीं कही जाएगी। और अंतिम सच यही है कि भाजपा के आम कार्यकर्ता को अपने नेता के तौर पर राजनाथ या वसुंधरा राजे में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो कार्यकर्ता का चुनाव तो वसुंधरा ही होंगी, इससे आप भी सहमत ही होंगे।
आनेवाले दिसंबर के बाद राजनाथ सिंह निश्चित रूप से बीजेपी के अध्यक्ष नहीं रहेंगे। लेकिन यह देश के दिलो दिमाग पर यह जरूर अंकित रहेगा कि उंचे कद के आला नेताओं की गरिमा को राजनाथ के काल में जितनी ठेस पहुंची और बीजेपी का सत्ता और संगठन के स्तर पर जितना कबाड़ा हुआ, उतना पार्टी के तीस सालों के इतिहास में कभी नहीं हुआ। और ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि राजनाथ सिर्फ पद से नेता है, कद से नहीं। पार्टी से निकालने का हक हासिल होने के बावजूद राजनीति में आज भी राजनाथ, जसवंत सिंह से बड़े नेता नहीं हैं। अपना तो यहां तक मानना है कि शेखावत जितना सम्मान हासिल करने और जसवंत सिंह जैसी गरिमा प्राप्त करने के लिए राजनाथ सिंह को शायद कुछ जनम और लेने पड़ सकते है। ऐसा ही कुछ आप भी मानते होंगे। और, यह भी जानते ही होंगे कि जसवंत के जाने से बीजेपी कमजोर ही हुई है, मजबूत नहीं। पर आपके मानने से क्या होगा, बरबाद होती बीजेपी माने तब ना...।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Thursday, August 20, 2009

राजीव शुक्ला : क्रिकेट की राजनीति के तीसरे अंपायर

राजीव शुक्ला आज राजनीति में भी हैं, क्रिकेट में भी, पत्रकारिता में भी, खबरों के कारोबार में भी और ग्लैमर की दुनिया में भी। सैंतालीस साल की उम्र में राज्य सभा में दूसरी बार आ जाने और देखते ही देखते क्रिकेट की दुनिया पर छा जाने वाले राजीव शुक्ला ने बचपन में कंचे और गिल्ली ठंडा खूब खेला है और कानपुर के दैनिक जागरण में, बड़े भाई दिलीप शुक्ला की छत्र छाया में जब उन्होनें पत्रकारिता शुरू की होगी तो ज्यादातर लोगों की तरह उनकी उम्मीदें बड़ी भले ही हों लेकिन खुद उन्हें अंदाजा नही होगा कि आखिर उनकी नाव किस घाट पर जा कर लगेगी। आज वे सफल भी हैं, समृध्द भी और प्रसिध्द भी लेकिन यह नही कहा जा सकता कि उनकी नाव घाट पर लग गई है। अभी बहुत सारी धाराएं, बहुत सारे भंवर और बहुत सारे प्रपात रास्तें में आने हैं और राजीव शुक्ला को उन्हें पार करना है। इतना तो है कि 1983 में दिल्ली के एक क्रांतिकारी अखबार में नौकरी के लिए इंटरव्यूह देने आए सभी लोगों के बीच कम से कम ढाई हजार रुपए की मांग करने की आम सहमति बनाते धूम रहे राजीव शुक्ला आज अपने टी वी चैनल में लोगों को आसानी से ढाई-ढाई लाख रुपए की नौकरियां देते हैं और एक जमाने में स्कूटर तक नही खरीद पाने वाले राजीव अब हवाई जहाज से नीचे नही उतरते और आम तौर पर उन्हें चार्टड जहाजों में भी देखा जाता है।इन दिनों जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में वर्चस्व की लड़ाई जोर शोर से चल रही है, भारतीय क्रिकेट टीम कभी शेर हो जाती तो कभी ढेर हो जाती है- ऐसे दौर में बी सी सी आई के ताकतवर उपाध्यक्ष और सबसे प्रसिध्द चेहरे के तौर पर होने के बावजूद राजीव शुक्ला विवादों के घेरे में नही आते। वे खुद कांग्रेसी होने के बावजूद बीजेपी के करीबी ललित मोदी और राष्ट्रवादी कांग्रेस के शरद पवार के साथ आसानी से चल लेते है और यह बात बहुतों को आश्चर्य में भी डालती है, लेकिन उन्हें नही जो राजीव शुक्ला की फितरत को जानते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो काफी आसानी से राजीव शुक्ला के सब तरह के उत्थान को जुगाड़ और अवसरवाद करार देकर अपना कलेजा ठंडा कर लेते हैं। ऐसे लोगों के पास इसके बारे में कुछ तर्क और कुछ कारण भी जरूर होगें, लेकिन उनके लिए यह समझना कठिन है कि अस्तित्व और आकांक्षा के अद्वैत को साधने के लिए निर्गुण और सगुण का नही निराकार और साकार में से साकार का चुनाव करना पड़ता है। राजीव शुक्ला ने राजनीति के साकार पात्रों को साधा और एक बड़ी बात यह है कि धाराएं भले ही अलग हो गई हो, नाता किसी से नही तोड़ा। पता नही कब और किस मोड़ पर वे यह ध्रुव सत्य सीख गए थे कि असली निवेश तो रिश्तों में किया गया निवेश ही होता है। जब वे राज्य सभा का पहला चुनाव निर्दलीय लड़े और बड़े बड़े धन्ना सेठों को हरा कर सबसे ज्यादा वोटों से जीते, तब यह सच पहली बार उनके संदर्भ में सामने आया था।
राजीव शुक्ला के बहाने समकालीन राजनीति का और खेल की राजनीति का एक पूरा खाका आप खींच सकते हैं। वे जब किराए के एक मकान में, सरकारी कॉलोनी में कई दोस्तों के साथ रहते थे तो अखबार के काम के अलावा उनका ज्यादातर समय अपनी निजी संपर्क डायरेक्टरी विकसित करने में बीतता था। दिल्ली आ कर वे सबसे पहले पड़ोसी मेरठ जिले के संवाददाता बने और देखते ही देखते मेरठ, खबरों के अखिल भारतीय नक्शे पर आ गया। फिर वे रविवार में गए और जिस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह को निरमा साबुन से भी ज्यादा साफ समझा जाता था और उन्हें जयप्रकाश नारायण के उत्ताराधिकारी के तौर पर स्थापित करने की समवेत कोशिशें चल रहीं थी, राजीव शुक्ला ने रविवार की आवरण कथा में वीपी सिंह के बारे में एक सच लिख कर सबके छक्के छुड़ा दिए। वह सच यह था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक नाटकीय क्षण में अपनी बहुत सारी जमीन विनोबा भावे की भूदान यात्रा में दान कर के यश कमाया था और फिर जब उन्हें लगा था कि गलती हो गई तो उन्होनें अपनी पत्नी की ओर से अपने ही खिलाफ हलफनामा दिलवाया कि उनका पति पागल है और उसके द्वारा दस्तखत किए गए किसी भी दस्तावेज को कानूनी मान्यता नही दी जाए। राजीव शुक्ला को कांग्रेस का एजेंट घोषित कर दिया गया मगर वे यह मुहावरा चलने के बहुत साल पहले मुन्ना भाई की तर्ज पर लगे रहे। कम लोग जानते हैं कि शाहबानों प्रसंग में बागी आरिफ मोहम्मद खान और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच संवाद का एक सबसे बड़ा सेतु भी राजीव ही थे और यही उनके इस परिवार से संपर्क स्थाापित होने की शुरूआत थी।क्रिकेट की दुनिया में राजीव शुक्ला को स्वर्गीय माधव राव सिंधिया लाए थे। राजीव ने इस खेल की महिमा और ताकत को पहचाना और इसके सहारे कई राजनैतिक मंजिलें भी पार की। इस बीच वे अचानक बहुत हाई प्रोफाइल हो चुके थे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच चाहे जैसी तनातनी चलती रहे, लेकिन दोनों की विदेश यात्राओं में राजीव की सीट पक्की होती थी। दिल्ली की पीटीआई बिल्डिंग में अपने ऑफिस में काम करते वक्त पीटीआई की एक बहुत दमदार पत्रकार अनुराधा से पहचान हुई, रिश्ता बना, आगे बढ़ा और आज तक बना हुआ है। अनुराधा टीवी में चैनलों की क्रांति होने के पहले से ही उसमें दिलचस्पी रखती थी और पीटीआई टीवी के नाम से शुरू हुई संस्था में उनकी मुख्य भूमिका थी। राजीव शुक्ला से भी उन्होनें दूरदर्शन पर बड़े लोगों से अंतरग मुलाकातों का कार्यक्रम रूबरू शुरू करवाया। इस कार्यक्रम को आज देश के सारे टीवी चैनलों पर चलने वाले टॉक शो का पूर्वज माना जा सकता है। इसी दौरान वे फिल्मकार रमेश शर्मा के टीवी शो के लिए निकले और चंबल घाटी पर कई ऐपीसोड की किस्तें बना कर ले आए। राजीव शुक्ला की कहानी हमारे समय की राजनीति की एक प्रतिनिधि कथा है। बहुत सारे परिचित और अपरिचित हैं जो राजीव शुक्ला की छवि को पच्चीस साल पुराने सांचे में रखकर देखते हैं। जब वे दिल्ली की एक्सप्रेस बिल्डिंग के बगल के एक ढाबे में दोस्तों के साथ खाना खाते थे और अपने हिस्से का दाम चुकाने के लिए चिल्लर की तलाश करते थे। नए अवतार में राजीव शुक्ला पुराने ही हैं, मगर उनकी एक छवि में बहुत सारी छवियां समा गई हैं। उनके दोस्तों में अब शाहरुख खान भी हैं जो अमरिका के किसी एयर फोर्स पर फंसतो हैं तो राजीव शुक्ला को फोन करते हैं और विजय माल्या भी, जो चार्टर्ड उड़ानों के लिए उनको अपने हवाई जहाज देते रहते हैं। मुकेश अंबानी से उनकी दोस्ती है और अंबानी कुटुंब की राजमाता कोकिला बेन उन पर विश्वास करती है। तमाम आपसी विरोधाभासों के बावजूद उनकी इतनी निभती है कि अंबानी समूह के अंग्रेजी अखबार ऑब्जर्बर के संपादक वे सांसद बनने के बाद तक बने रहे। वैसे, हिंदी मीडियम में पढे और ज्यादातर हिंदी की ही पत्रकारिता करने वाले राजीव शुक्ला ने इतनी धमाकेदार अंग्रेजी कब और कहां से सीख ली, यह जरुर सबके लिए रहस्य बना हुआ है।संसद की उनकी परिचय पुस्तिका में आज भी उनका पेशा पत्रकारिता ही लिखा हुआ है। रिडिफ वेबसाईट ने तो उन्हें पिछले पंद्रह साल से भारत में सबसे ज्यादा प्रभावशाली संपर्को वाला पत्रकार घोषित किया हुआ है। राजीव शुक्ला लिखने के मामले में प्रभाष जोशी या राजेन्द्र माथुर नही हैं और न ही उनकी रिर्पोटिंग में उनके अग्रज उदयन शर्मा वाली तल्लीनता और करीबी साथी आलोक तोमर वाली धार है । लेकिन उनके लिखने, राजनीति करने और क्रिकेट से ले कर कांग्रेस तक के उलझे हुए समीकरण सुलझाने में एक त्वरित तात्कालिकता जरुर है, जो उन्हें किसी का भी विकल्प बनने की मजबूरी में नही फंसाती।
बचपन में वे अपने कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम कितने गए हैं यह तो पता नही, लेकिन क्रिकेट की दुनिया में अपनी प्रासंगिकता बनाने के लिए वे टीम के मैनेजर भी बने और क्रिकेट की राजनीति के बहुत सारे निशाने साधने वाले तीरंदाज भी। जगमोहन डालमिया और शरद पवार के बीच डालमिया के भूतपूर्व शिष्य इंद्रजीत सिंह बिंद्रा की वजह से जो लफड़ा शूरू हुआ , उसे निपटाने में राजीव शुक्ला की बड़ी भूमिका रही । और आपने गौर किया होगा कि डालमिया ने शरद पवार, निरंजन शाह और उनकी मंडली पर सैकेंड़ों करोड़ के घोटाले के आरोप लगा डाले हैं, शरद पवार को तो उन्होनें मुशर्रफ से बड़ा तानाशाह कह डाला है लेकिन इस शत्रु सूची में राजीव शुक्ला का नाम नही है। राजीव शुक्ला क्रिकेट की राजनीति के लगभग अदृश्य रहने वाले तीसरे अंपायर हैं। आख़िर राजीव शुक्ला भी तो अपने जनसत्ता के ही आदिवासी हैं।(शब्दार्थ)

Saturday, August 8, 2009

पहरेदारों के पतित होने पर सोनिया गांधी की चिंता

निरंजन परिहार
भले ही दुनिया भर में हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का झंडा लिए घूमते हों, और अपनी संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हों। लेकिन हमारे सांसद, लोकतंत्र की गरिमा और उसके मंदिर की मर्यादाओं का कितना ख्याल रखते हैं, यह सोनिया गांधी की पीड़ा से साफ जाहिर है। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को लेकर सोनिया गांधी की पीड़ा, पहरेदारों के पतीत हो जाने का सबूत है। काग्रेस अध्यक्ष ने सांसदों की सदन से गायब रहने की आदत से आहत होकर गैर हाजिर रहनेवालों को कड़ी फटकार लगाई है। राहुल गांधी ने भी सदन में सांसदों की कम उपस्थिति को काफी गंभीरता से लिया है। सोनिया गांधी ने काग्रेस के सीनियर नेताओं से सदन में अपने सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने को कहा है। कोई भले ही उनकी इस तकलीफ के कुछ भी अर्थ निकाले, लेकिन इतना तय है कि हमारे सांसदों का संसदीय कार्यवाही में कम और बाकी कामों में ध्यान ज्यादा रहने लगा है। जिनको देश चलाने के लिए चुना गया हो, वे ही जब राष्ट्रीय फैसलों के निर्धारण में ही रूचि नहीं लेंगे, तो लोकतंत्र की गरिमा को मिट्टी में मिलने से कैसे बचाया जा सकता है ?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस के सांसदों की ही सदन में उपस्थिति अपेक्षा से कम रही हों। संसदीय मर्यादाओं, लोकतांत्रिक गरिमा और नैतिक मूल्यों की दुहाई के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाली पार्टियों के सांसदों की भी सदन में हाजिरी का हाल ऐसा ही है। उनके नेता हार का गम अब तक भुला नहीं पाए हैं। इसिलिए शायद, इस गंभीर विषय पर भी वे ध्यान नहीं दे पाए हों। पर, यह तो सबके सामने है कि सोनिया गांधी ने सबसे पहले गौर किया, और तत्काल सख्त कदम उठाने को भी कहा।
वैसे, ये हालात कोई पहली बार सामने नहीं आए हैं। पहले भी ऐसा होता रहा है। ज्यादा पीछे नहीं जाएं और अभी पिछली लोकसभा की ही बात कर लें। तो, सदन में जब अंतरिम बजट जैसे देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस हो रही थी, तो सत्ता पक्ष के ही नहीं विरोधी दलों के सांसदों की भी सदन में बहुत ही कम संख्या थी। और जब इस गंभीर बहस के दौरान सदन खाली-खाली सा था, तो कुछ सांसद दक्षिण दिल्ली के किस डिजाइनर फैशन स्टोर में किस-किस के लिए कैसे-कैसे कपड़े खरीद रहे थे, और अपने चमचों के साथ किस रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे, अपने पास इसके भी पुख्ता सबूत हैं। मतलब यह है कि ज्यादातर सांसदों का ध्यान देश के सुलगते मुद्दों में कम और अपनी जिंदगी को संवारने पर ज्यादा है। हमने देखा है कि हमारे ज्यादातर सांसदों में सवाल पूछने और संसद में बोलने के मामले में भी कोई खास रूचि ही दिखाई नहीं देती। बहस में हिस्सा लेने में भी पहले के मुकाबले उत्साह बहुत ही कम हुआ है। और आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि कुछ साल पहले शुरू हुआ यह सिलसिला अब, बहुत तेजी से नए सांसदों को भी अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है।
पिछली लोकसभा के आंकड़ों पर निगाह डालें तो सिर्फ 175 सांसद ही ऐसे थे, जिन्होंने सदन में किसी बहस में हिस्सा लिया और सवाल पूछे। बाकी 371 सांसद तो मदारी के खेल की तरह पांच साल तक संसद को निहारने के बाद खुद को धन्य मानकर वापस घर लौट गए। जो विधेयक संसद में पेश हुए, उनमें से 40 फीसदी विधेयकों को तो सिर्फ एक घंटे से भी कम समय की चर्चा में पास कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन पर कोई बहस करने वाला ही नहीं था। हालात तो ऐसे भी कई बार आए हैं कि बिना बहस के ही कई विधेयकों को पारित करना पड़ा, और यह सिलसिला भी लगातार बढ़ता जा रहा है। यह सब संसदों के सदन में ना जाने की वजह से हो रहा है। संसद में जाएंगे, तभी वहां पेश किए जाने वाले किसी विषयों को समझेंगे। और समझेंगे, तभी उस पर बोल भी सकेंगे। पिछली लोकसभा का तो आलम यह था कि ग्यारहवें और बारहवें सत्र में तो सिर्फ 25 फीसदी सांसद ही लोकसभा में ठीक-ठाक हाजिर रहे। बाकी 75 फीसदी सांसदो की 16 दिन से भी कम हाजिरी रही। दो बार राज्य सभा में रहने के बाद इस वार लोकसभा के सांसद चुने गए हमारे साथी संजय निरुपम भी मानते हैं कि संसद में बोलने वाले आज सिर्फ उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। हालात यही रहे तो आने वाले सालों में सारे विधेयक बिना किसी चर्चा के ही पारित करने पड़ सकते हैं। सोनिया गांधी कोई यूं ही चिंतित नहीं हैं। वे महसूस करने लगी है कि हमारी संसद सत्ता के शक्ति परीक्षण के केंद्र में तो आज भी है। लेकिन वैचारिक चिंतन और सार्थक बहस के मंच के रूप मे उसकी भूमिका खत्म होती जा रही है। काग्रेस के सांसदों को इसीलिए उन्होंने सचेत किया है।
पार्टियों से जहां बैठने के लिए टिकट लिया और जनता ने जहां के लिए चुनकर भेजा। उस संसद में जाने से ही हमारे लोकतंत्र के ये पहरेदार बचने लगे हैं। इसे पहरेदारों का पतित होना ही कहा जाएगा। यह पतन और आगे ना बढ़े, सोनिया गांधी ने इसीलिए तत्काल कदम उठाने के आदेश दिए हैं। देश ने ही नहीं, पूरी दुनिया ने हमारे सांसदों को कैमरों के सामने रिश्वत लेते देखा। दूसरे की पत्नी को कबूतर बनाकर दुनिया घुमाते हुए हमने अपने सांसदों को देखा। और दलाली करते हुए भी रंगे हाथों अपने सांसदों को सारे देश ने देखा। ऐसे में, अपने आपसे यह सवाल पूछने का हक तो हमको है ही कि संसद में बैठने के लिए हमने कहीं दलालों को तो नहीं चुन लिया? हम अपना सीना तान कर दुनिया भर में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गर्व करते हैं। लेकिन, जब कोरम पूरा ना होने की वजह से लोकसभा की कारवाई कई-कई बार स्थगित करनी पड़ती है, तो हमारे सांसदों को शर्म क्यों नहीं आती ?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Saturday, August 1, 2009

राजनीति की तरह मीडिया का भी कबाड़ा

निरंजन परिहार
प्रभाष जोशी भन्नाए हुए हैं। उनका दर्द यह है कि पत्रकारिता में सरोकार समाप्त हो रहे हैं। हर कोई बाजार की भेंट चढ़ गया है। क्या मालिक और क्या संपादक, सबके सब बाजारवाद के शिकार। कभी देश चलानेवाले नेताओं को मीडिया चलाता था। आज, मीडिया राजनेताओं से खबरों के बदले उनसे पैसे वसूलने लगा हैं। देश के दिग्गज पत्रकार कहे जाने वाले प्रखर संपादक प्रभाषजी इसीलिए बहुत आहत हैं। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, जैसा चल रहा है, तो सरोकारों को समझने वाले लोग मीडिया में ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। हालात वैसे ही हो जाएंगे, जैसे राजनीति के हैं। राजनीति की तरह मीडिया में भी और पद और अपने कद के लिए कोई भी, कुछ करने को तैयार है।
यह विकास की गति के अचानक ही बहुत तेज हो जाने का परिणाम है। अपना मानना है कि भारत में अगर संचार से साधनों का बेतहाशा विस्तार नहीं हुआ होता, तो आज जो हम यह, भारतीय मीडिया का विराट स्वरूप देख रहे हैं, यह सपनों के पार की बात होती। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार हाल ही के कुछ सालों में बहुत तेजी से फला-फूला है। यह नया माध्यम है। सिर्फ दशक भर पुराना। इसीलिए इसमें जो लोग आ रहे हैं, उनमें नए लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। लड़के आ ही रहे हैं, तो लड़कियां भी बड़ी तादाद में छा रही हैं। अपन इनको संचार क्रांति की नई पैदावार मानते है। इस नई पैदावार के लिए, हर बात नई है। जिनको पता ही नहीं है कि सरोकार शब्द का मतलब क्या होता है, उनसे करोकारों की उम्मीद पालना भी कोई खास समझदारी का काम नहीं होगा। नए जमाने के इस नए माध्यम में तेजी से अपनी जगह बनाती इस नई पीढ़ी में बहुत तेजी से आगे बढ़ने की ललक ने ही इस पीढ़ी का काफी हद तक कबाड़ा भी किया है। सफलता जब सही रास्ते से होते हुए सलीके के साथ आती है, तो ही वह अपने साथ सरोकार भी लेकर ही आती है। लेकिन मनुष्य जब सिर्फ आगे बढ़ने की कोशिश में खुद को बेतहाशा झोंक देता हैं तो वह कुछ मायनों में आगे भले ही बढ़ जाए, मगर उसकी कीमत भी उसे अलग से चुकानी पड़ती है। और मीडिया में ही नहीं किसी भी पेशे में आगे बढ़ने की यह ललक अगर महिला की हो तो फिर रास्ता और भले ही आसान तो हो जाता है। पर, उसकी कीमत की तस्वीर फिर कुछ और ही हो जाती है। दरअसल यह मीडिया की बदली हुई तस्वीर है। और यही असली भी है। बाजारवाद ने मीडिया को ग्लैमर के धंधे में ढाल दिया है। और सेवा को कोई स्वरूप या फिर मिशन, जब धंधे का रूप धर ले, तो सरोकारों की मौत बहुत स्वाभाविक है। ग्लैमर के बाजार की चकाचौंध वाले मीडिया का भी इसीलिए यही हाल है।
जो लोग ग्लैमर की दुनिया में हैं, वे इस तथ्य से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं कि दुनिया के हर पेशे की तरह इस धंधे में भी दो तरह के लोग है। एक वे, जो तरक्की के लिए तमाम हथकंडे इस्तेमाल करके किसी मुकाम पर पहुँच जाना चाहते हैं। और अकसर पहुंच भी जाते है। दूसरे वे हैं, जिनके लिए सफलता से ज्यादा अपने भीतर के इंसान को, अपने ईमान के और अपनी नैतिकता को बचाए रखना जरूरी होता है। ऐसों को फिर तरक्की को भूल जाना पड़ता है। अब पूंजीवाद के विस्तार और बाजारीकरण के दौर में नए जमाने का यह नया माध्यम सेवा और मिशन के रास्ते छोड़कर ग्लैमर के एक्सप्रेस हाई-वे पर आ गया है। इसीलिए, राजनीति और फिल्मों की तरह मीडिया में भी लोग अपनी जगह बनाने, उस बनी हुई जगह को बचाए रखने और फिर वहां से आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। भले ही यह बहुत खराब बात मानी जाती हो कि आगे बढ़ने और कमाने की होड़ में हर हथकंडे का इस्तेमाल करने के इस गोरखधंधे की वजह से ही उद्देश्यपरक पत्रकारिता और सरोकार खत्म हो रहे हैं। लेकिन हालात ही ऐसे हैं। आप और हम क्या कर सकते हैं। हम यह सब-कुछ बेबस होकर लाचार होकर यह सब देखने को अभिशप्त हैं। प्रभाषजी का आहत होना स्वाभाविक है। जो आदमी पूरे जनम, सरोकारों के साथ लेकर चला, वह दुखी नहीं होगा तो क्या करेगा। आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर अपने एक पुराने साथी राजनेता से पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा रगने की एक बड़ी वडह यह भी तही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जन्म ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते। अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना-अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।
माना कि आज जो लोग मीडिया में हैं, उनमें से ज्यादातर वे हैं, जो पेट पालने के लिए रोटी के जुगाड़ की आस में यहां आए है। वे खुद बिकने और खबरों को बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। बाजारीकरण के इस दौर ने खासकर मेट्रो शहरों में काम कर रहे ज्यादातर मीडिया कर्मियों को सुविधाभोगी, विचार विहीन, रीढ़विहीन, संवेदनहीन और अमानवीय बना दिया है। यह सब आज के अखबारों की शब्दावली और न्यूज टेलीविजन की दृश्यावली देखकर साफ कहा जा सकता है। हमारे साथी पुण्य प्रसून वाजपेयी की बात सही है कि कोई दस साल पहले हालात ऐसे नहीं थे। आज भले ही मीडिया का तकनीकी विस्तार तो खासा हुआ है। लेकिन पत्रकारों के दिमागी दायरे का उत्थान उतना नहीं हो पाया है। एक दशक पहले तक के पत्रकारों के मुकाबले आज के मीडिया जगत को चलाने वाले मालिकों और काम करने वाले लोगों की सोच में जमीन आसमान का फर्क है। तब राजेन्द्र माथुर थे। उदयन शर्मा थे और एसपी सिंह सरीखे लोग थे। इनकी ही जमात के प्रखर संपादक प्रभाष जोशी आज भी है। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल काम किया और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में रहकर उनका भरपूर प्यार पाया। लेकिन मीडिया के बाजारवाद की भेंट चढ़ जाने को अपन ने स्वीकार कर लिया है। अपन ना तो पुराने हैं और ना ही नए। अपन बीच के हैं। इसलिए, इस बदलाव को प्रभाषजी की तरह आहतभाव से देखकर दुखी तो बहुत होते हैं, पर ढोना नहीं चाहते। अपन जानते हैं कि ना तो अपन बिक सकते हैं, और ना ही अपन से कुछ बेच पाना संभव हैं। लेकिन यह भी मानते हैं कि बिकने और बेचने को देखकर अपने दुखी भी होने से आखिर आज हो भी क्या जाएगा। पूरा मीडिया ही जब मिशन के बजाय प्रॉडक्ट बन गया है, तो आप अकेले कितनों को सुधार पाएंगे, प्रभाषजी। पूरा परिदृश्य ही जब पतीत हो चुका हैं। और, आप यह भी जानते ही हैं कि हालात में सुधार की गुंजाइश भी अब कम ही बची है। क्योंकि जहां से भी मिले, जैसे भी मिले, आज के ज्यादातर मालिकों को पैसा ही सुहाने लगा है। यह नया जमाना है। आज ना तो आप और ना ही हम, किसी नए रामनाथ गोयनका जैसे किसी मालिक को पैदा कर सकते, प्रभाषजी। जो, नोटों की गड्डियों के ठोकर मारकर सरोकारों के लिए संपादक के साथ खड़ा होकर सत्ता से पंजा भिड़ा ले। अपना मानना है कि हजार हरामखोरों के बीच अगर एक भी भला आदमी कहीं किसी कोने में भी बैठा हुआ मिला तो बाकियों की इज्जत भी बची रहती है। तो फिर, आप तो आज भी प्रज्ञा पुरुष की तरह मुख्य धारा में हैं, प्रभाषजी। मीडिया की दुर्गति देखकर अपनी जान थोड़ी कम जलाइए। इस भ्रष्ट हो रहे दौर में आज आपकी जरूरत कुछ ज्यादा ही है। ताकि हजार हरामखोरों के के बावजूद, मीडिया की इज्जत बनी और बची रहें। वरना, तो फिल्मों और राजनीति की तरह इसका भी, करीब-करीब कबाड़ा तो हो ही चुका है। हुआ है कि नहीं।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Monday, March 16, 2009

आलोक तोमर इसलिए मिले क्योंकि प्रभाष जोशी थे
नूरा जैसा माफिया आपका दोस्त रहा है। आप दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील, छोटा राजन जैसे लोगों से मिल चुके हैं। यह सब कैसे हुआ?

जनसत्ता, मुंबई में था तो वहां सरकुलेशन वार शुरू हुआ। भइयों का एक गैंग कृपाशंकर सिंह के नेतृत्व में था। नभाटा वालों के कहने पर गैंग जनसत्ता मार्केट में जाने से पहले हाकरों से खरीदकर समुद्र में फेंक देता था।
इधर, हम लोगों के अखबार का सरकुलेशन लगातार बढ़ रहा था लेकिन अखबार समुद्र में मछलियां पढ़ रहीं थीं। इसी कोई वैधानिक हल नहीं दिखा तो मैंने नूरा इब्राहिम से संपर्क निकाला। उससे मैंने नभाटा की कापियां समुद्र में फिंकवाना शुरू करा दिया। बात में नभाटा वालों से संधि हुई और यह अखबार फिंकवाने का धंधा दोनों तरफ से बंद करने पर सहमति बनी। इसके बाद नूरा से दोस्ती हो गई। कालीकट-शारजाह की जब पहली फ्लाइट शुरू हुई तो उसमें यात्रा करने के लिए मुझे भी न्योता मिला। शारजाह में सब कुछ नानवेज मिलता था और मैं ठहरा वेजीटीरियन। वहां शराब पर पाबंदी थी और मैं उन दिनों था मदिरा प्रेमी। वहां मैंने अपने लिए अंडा करी मंगाया तो उसमें भी हड्डी थी। मैंने नूरा को फोन किया। बगल में दुबई था। वहां से एक बड़ी गाड़ी आई। उस जमाने में भारत में मारुति से बड़ी गाड़ी नहीं थी। वो जो गाड़ी आई उसे छोटा राजन ड्राइव कर रहा था और उसमें छोटा शकील बैठा था। मैं उनके साथ गया। दुबई में दाऊद इब्राहिम से मुलाकात हुई। यहां यह साफ कर दूं कि ये बातें मुंबई ब्लास्ट के पहले की हैं। दाऊद ने मुझे एंस्वरिंग मशीन भेंट की। मैं मोबाइल फोन और इंस्ट्रूमेंट का शौकीन था। मैंने दाऊद से मुलाकात और उससे बातचीत के आधार पर जो रिपोर्ट दी वह जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस दोनों में फ्रंट पेज पर छपी। मैं बहुत सारे माफियाओं से मिल चुका हूं। चंबल के डाकू, मुंबई के भाई, दिल्ली के दीवान देवराज...। ये सब बेहद विनम्रता से ''भाई साहब-भाई साहब'' कहकर बात करते हैं।
आपके जीवन में कभी ऐसा भी क्षण आया जब आपको अंदर से डर लगा हो?
अपने पर मुझे अति-आत्मविश्वास है। मेरे शुभचिंतक हमेशा मेरे काम आए। एक बार मेरा एक्सीडेंट हुआ और पूरी रात बेहोश पड़ा रहा। मेरे मित्र ही मेरे काम आए। एक बार थोड़ा डर तब लगा था जब वीपी सिंह पीएम थे और मेरे घर आ धमके थे। उनके खिलाफ मैंने बहुत लिखा था। प्रभाष जी ने जो संपादकीय लोकतंत्र दे रखा था उसके चलते हम लोग ऐसा कर पाते थे। एक पीएम जिसके खिलाफ आप लिखते रहते हों, अपने लाव लश्कर के साथ घर आ धमके तो पहली नजर में मामला कुछ गड़बड़ नजर आता है। मेरी चिंता यह थी कि घरवालों को कोई दिक्कत न हो जाए। यह भय एक पीएम के आने का था। मेरा भय गलत था। वे सिर्फ मिलने आए थे।
अपने करियर की सबसे बेहतरीन रिपोर्टिंग आप किसे मानते हैं?
कालाहांडी पर अकाल को लेकर जो लिखा उसे मैं मानता हूं। उसी के बाद से कालाहांडी के सच को देश जान पाया। यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इसका इंपैक्ट हुआ और इसके बाद कालाहांडी के लोगों की जिंदगी में बदलाव आने के लिए सरकारी और गैर सरकारी प्रयास शुरू हुए। हरा भरा अकाल शीर्षक से कालाहांडी पर मेरी किताब है। कालाहांडी के बारे में मुझे जानकारी विदेश से मिली थी। मेरी एक दोस्त हैं जो हालीवुड में हैं। उनका लास एंजिल्स से फोन आया और उन्होंने मुझसे अंग्रेजी में पूछा था कि क्या भारत के उड़ीसा में 'क्लेहांडी' नामक कोई जगह है जहां लोग भूख से मरते हैं। वो देवी जी चंद्रास्वामी के चक्कर में मुझसे मिली थीं। उनका नाम है जूलिया राइट। वे हालीवुड की ठीकठाक अभिनेत्री हैं। उनके इस सवाल का जवाब तलाशना शुरू किया तो कालाहांडी का सच सामने आया।
आप एक ऐसे पत्रकार हैं जो लेखन में बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। विज्ञान से लेकर नृत्य-संगीत, फिल्म तक पर आपने काम किया है। जरा इस बारे में बताएं?
मेरी जितनी भी महिला मित्र हैं वे सब या रही हैं, ज्यादातर- नृत्य, संगीत और साहित्य के क्षेत्र की रहीं हैं। एक मित्र हैं जयन्ती। उस समय धर्मयुग में थीं। कोयल की तरह मीठी आवाज़ और बहुत प्रतिभाशाली। अब दिल्ली में हैं, वनिता की संपादक रह चुकीं हैं। मैं खजुराहो नृत्य समारोह का आफिसियल क्रिटिक रहा हूं। विज्ञान कथा की तरह फाइनेंसियल एक्सप्रेस में रेगुलर क्रिटिक रहा हूं। कविताओं का प्रेमी हूं। अग्निपथ, खिलाड़ी, जी मंत्री जी, केबीसी जैसे सीरियल लिखे। ये सब रुटीन में चलता रहता है। जहां से जो मांग आती है उसके लिए काम करता हूं।
आगे की क्या योजना है?
टीवी की जो भाषा है वो आजकल पत्रकारिता की भाषा हो गई है। उसको सुधारने का मौका मिलेगा तो काम करूंगा। मौका न मिला तो भी काम करूंगा। जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखना चाहिए। टीवी की भाषा बहुत फूहड़ हो गई है। हालांकि भाषा को लेकर लोग अब सजग होते भी दिख रहे हैं। पुण्य प्रसून भाषा और सरोकार से समझौता नहीं करते। वे इस वक्त आदर्श टीवी पत्रकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रिंट में प्रभाष जी के बाद बहुत लोग हैं जो अच्छा लिखते हैं। आशुतोष बहुत अच्छा लिखते हैं पर वे टीवी में चले गए। मधुसूदन आनंद सटीक और सीधा लिखते हैं। मृणाल जी बहुत अपाच्य लिखती हैं। अभिषेक श्रीवास्तव और कुमार आनंद अच्छा लिख रहे हैं। राजकिशोर के पास भाषा और कंटेंट दोनों हैं। कई अच्छी प्रतिभाएं टीवी में चली गईं। रह गए वे लोग जो इस चक्कर में अच्छा नहीं लिख पाए की उन्हें टीवी में जाना है। वे एसपी सिंह की भाषा याद नहीं करते।
मेरी निजी रुचि राजनीतिक खबरों में कतई नहीं है। मैं लोक हित के मुद्दों पर काम करना चाहता हूं। राइट टू एजुकेशन भारत के संविधान में नहीं है। डाक्टर ने दवा लिख दिया लेकिन दवा खरीदने के लिए पैसा नहीं है। ये सब विषय हैं जिस पर काम करने का मन है। पर टीवी से ये विषय खेदड़ दिए गए हैं। इंडिया टीवी में जब मैं था तो रजत शर्मा से मैंने एक स्टोरी पर काम करने के लिए जिक्र किया। मामला झाबुआ में एक परिवार के सभी सदस्यों का गरीबी के चलते आत्महत्या कर लेने का था। तो रजत शर्मा ने कहा- ''झाबुआ इज नाट ए टीआरपी टाउन।''
मैं यहां बता दूं कि टीवी में मेरा प्रवेश रजत शर्मा के चलते ही हुआ था। मुझे लगता है कि ये जो टीआरपी का तंत्र है उसे बदलना चाहिए। एक पैरलल टीआरपी तंत्र विकसित करने की इच्छा है। इसकी टेक्नालाजी कया हो, मेथोडोलाजी क्या हो, ये सारे विषय अभी तय किए जाने हैं पर पैरलल टीआरपी सिस्टम को लेकर काम करना है, यह तय है। जिस तरह सेंसर बोर्ड वाहियात फिल्मों पर नजर रखने के लिए हैं उसी तरह अगर मित्रों की मंडली सार्थक खबरें बना सके, पठनीय बना सके तो ज्यादा उचित काम हो सकता है। यह करने की सोच है। एक खंडकाव्य लिखना चाहता हूं। दुष्यंत कुमार को लोग उनकी गजलों के लिए जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने एक कंठ विषपाई नामक एक खंड काव्य भी लिखा है। इस खंड काव्य की चार लाइनें शंकर जी पर हैं, वे इस तरह हैं- विष पीकर क्या पाया मैंने, आत्म निर्वासन और प्रेयसी वियोग। हर परंपरा के मरने का विष मुझे मिला, हर सूत्रपात का श्रेय ले गए और लोग।। मुझे तो ये लाइनें उनकी सारी गजलों पर भारी पड़ती दिखती हैं।
आप जीवन में किनकी तरह बनना चाहते थे?
मैं उदयन शर्मा की तरह बनना चाहता था पर आज तक नहीं बन पाया।
राजनीति में आपको कौन से लोग अच्छे लगते हैं और क्यों?
अटल जी को मानवीय गुणों की वजह से सर्वश्रेष्ठ राजनेता मानता हूं। अर्जुन सिंह जी से परिचय उनके खिलाफ ख़बर लिखने से हुआ था, मगर पिता की तरह आज भी स्नेह देते हैं। कमलनाथ को अच्छा नेता इसलिए मानता हूं कि वे दुनियादार और मेहनती हैं, मेरे दोस्त हैं। रमन सिंह को इसलिए मानता हूं क्योंकि उनके अंदर मानवीय सरोकार गजब के हैं। उन्हें आज तक ये भरोसा नहीं है कि वे सीएम बन गए हैं।
आपको आगे किसी मीडिया हाउस की तरफ से नौकरी करने के लिए प्रस्ताव आता है तो ज्वाइन करेंगे?
नौकरी नहीं करूंगा, काम करूंगा। ये काम भाषा के स्तर पर है, ये काम सरोकार के स्तर पर है। प्रभाष जी के बाद किसी ने भाषा को अपनी संवेदनशीलता से छुवा नहीं।
दिल्ली से लांच हो रहे नई दुनिया के बारे में आपकी क्या धारणा है? इसका भविष्य कैसा दिख रहा है?
नई दुनिया नखदंत विहीन शेर है। एक जमाने में यह पत्रकारिता का मानक था। अपोलो सर्कस अगर किसी शंकराचार्य से विज्ञापन करवा ले तो वह तीर्थ नहीं बन जाएगा। संवाद, विवाद, अपवाद, सरोकार...इन सबसे कोई बचेगा तो वो किस बात का अखबार होगा। आलोक मेहता हैं इसलिए थोड़ी-बहुत उम्मीद है।
अब कोई दूसरा आलोक तोमर नहीं दिखता, ऐसा क्यों?
आलोक तोमर इसलिए मिले क्योंकि प्रभाष जोशी थे। अच्छा गहना बनाने के लिए शिल्पी चाहिए। दिल्ली प्रेस में भर्ती हो जाता तो वहीं रह जाता। अगर प्रभाष जी नहीं मिले होते तो ये आलोक तोमर नहीं होता। नाम मेरा जनसत्ता से हुआ। टीवी में संप्रेषण और अभिव्यक्ति की सीमा है। आपके और आपके दर्शक के बीच में तकनीक है। फुटेज, इनजस्ट, साउंड क्वालिटी, विजुअल क्वालिटी ये सब ज्यादा प्रभावी हो जा रहे हैं। पुण्य प्रसून में जिस तरह का रचनात्मक अहंकार और दर्प है, वो अब बाकी लोगों में गायब होता दिख रहा है। लोग जहां जाते हैं, वहां वैसा लिखने लगते हैं। टीवी सुरसा है जो सबको निगल रही है। आज के जमाने में अगर गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर होते और उनका नवभारत व हिंदुस्तान के लिए टेस्ट करा दिया जाता तो वे फेल कर दिए जाते। आज की जो हिंदी पत्रकारिता है, उसे सुधारना है तो दूसरा प्रभाष जोशी चाहिए। महात्मा गांधी से बड़ा पत्रकार कौन है। उनके एक संपादकीय पर आंदोलन रुक जाया करते थे। मैं हरिवंश का प्रभात खबर सब्सक्राइव कर मंगाता हूं। वर्तमान में यह एक ऐसा अखबार है जिसमें सरोकार बाकी है। आजकल पत्रकारों से ज्यादा समाज के बारे में निरक्षर कोई दूसरा नहीं है। अगर भारत में भूख के बारे में लिखना है और नेट पर सर्च करेंगे तो विदेश के पेज खुलेंगे। कालाहांडी में भूख से मौत के बारे में मेरे पास सूचना विदेश से आती है।
आप अपनी कुछ कमियों के बारे में बताएं?
सबसे बड़ी कम यह है कि मैं बहुत आलसी आदमी हूं। हिंदी टाइपिंग बहुत कोशिश के बाद भी आज तक नहीं सीख पाया, ये भी मेरी बहुत बड़ी कमी है। अपने मां-पिता को बहुत समय नहीं दे पाता, यह मेरी कमी है। मां नहीं होती तों मैं पत्रकार नहीं बन पाया होता। मैं अंग्रेजी नहीं पढ़ और बोल पाता। मैं कभी पीआर नहीं कर पाया, ये मेरी कमी है। अचानक दो साल बाद किसी काम से कोई याद आएगा तो फोन करता हूं वरना फोन नहीं करता। ये मेरी कमी है। मैं नेटवर्किंग नहीं कर पाता। शराब की कुख्याति जुड़ी हुई है मेरे साथ, इसने मेरा बड़ा नुकसान किया है।
आप अपने को कितना सफल और असफल मानते हैं?
मैं अपने को सफल नहीं मानता। पत्रकारिता के बदलाव में मेरी भूमिका नहीं बन सकी। मैं एक नई शैली और सरोकार की पत्रकारिता को जन्म दे सकूं, ये मेरा इरादा था और है। पर अभी तक यह नहीं हो पाया। नकवी, रजत शर्मा, सबने मुझे बुला कर मौका दिया। पर टीवी में मैं कुछ खास नहीं कर पाया। मेरी ग्रोथ बहुत पहले सन् 85-86 में बंद हो चुकी थी। सन् 2000 तक किसी तरह सस्टेन किया। पायनियर, बीबीसी, वायस आफ अमेरिका, शाइनिंग मिरर (कैलीफोर्निया का अखबार) जैसे अखबारों के साथ काम करने के बावजूद मैं इसे सफल पारी नहीं कह सकता। सफलता तो सापेक्ष होती है। इतना कह सकते हैं कि मैंने ट्वेंटी-ट्वेंटी अच्छे से खेला, टेस्ट मैंच नहीं खेल पाया। मेरे कई मित्र बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। अजीत अंजुम कबसे इतना मेहनत किए जा रहा है। उनकी मेहनत करने की क्षमता देखकर मुझे ईर्ष्या होती है।
आप दोस्ती कितना निभा पाते हैं?
मुंहफट होने की वजह से रिश्ते बिगाड़ता बहुत जल्दी हूं। रविशंकर जो आजकल वीओआई में है, एक्सप्रेस के जमाने से मेरा दोस्त है। किसी बात पर झगड़ा हो गया। जी मंत्री जी की उसने समीक्षा लिखी तो मैंने फोन किया तो उसने कहा कि मैं तुमसे बात नहीं करना चाहता, तुम्हारा काम अच्छा है इसकी तारीफ करता हूं पर तुमसे बात करना जरूरी नहीं है। इसी तरह राजकिशोर से नहीं पटती। उनका लिखा मुझे अच्छा लगता है। अगर राजकिशोर और मुझको एक कमरे में बंद कर दो तो दोनों में से कोई एक ही बाहर निकलेगा और जो बाहर निकलेगा वो मैं ही हूंगा।
आपको किस चीज से घृणा होती है?
हिंदी पत्रकारिता में जो छदम आक्रामकता है, उससे मुझे घृणा है। प्रो एक्टिव जर्नलिज्म करनी है तो फिर सड़क पर आइए। हम लोगों ने भी आक्रामक पत्रकारिता की है और उसे सड़क पर आकर आखिर तक निभाया है। एक उदाहरण देना चाहूंगा। न्यू बैंक आफ इंडिया का आफिस जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में ही था। इस बैंक के घपले और घोटाले के बारे में पता चला तो अखबार मालिकों के बिजनेस के इंट्रेस्ट के होते हुए भी हम लोगों ने इनके खिलाफ खुलकर लिखा और साथ ही, खुराना और वीपी सिंह के जरिए लोकसभा में सवाल उठवाए। आखिरकार यह बैंक बंद कर दिया गया।
आपने शराब के बारे में बताया कि इसने आपको कुख्याति दी है। कैसी कुख्याति? शराब को लेकर अब क्या दर्शन है?
बहुत दिनों से मैं शराब छोड़ चुका हूं। एम्स के डी-एडिक्शन सेंटर गया था। उन लोगों ने काफी सारी दवाइयां दीं लेकिन विल पावर हो तो दवाओं की कोई जरूरत नहीं होती। छोड़ दिया तो छोड़ दिया। इस जन्म का कोटा मैं पूरा कर चुका हूं। पर मैं अखबार में विज्ञापन देकर तो दुनियावालों को नहीं बता सकता न कि अब मैं शराब छोड़कर शरीफ बन गया हूं, आप सब लोग मुझ पर विश्वास करो (हंसते हुए)।
शराब को मैं बुराई नहीं मानता। शराब पीकर आदमी पारदर्शी हो जाता है। भावनाओं को ईमानदारी से व्यक्त करता है। शराबी से ज्यादा ईमानदार व्यक्ति कोई दूसरा नहीं होता। पर जिंदगी का जो कैलेंडर लेकर हम लोग आए हैं उसमें हमें तय करना होगा कि हम शराब पीने और हैंगओवर उतारने में कितना समय दें। शराब से मेरे कई बड़े निजी नुकसान हुए। राजीव शुक्ला की मैरिज एनीवरसरी उदयन शर्मा के घर पर थी। वहां कई दोस्त मिल गए और जमकर पी गया। टुन्न होकर घर लौट रहा था। रास्ते में एक्सीडेंट हो गया। पत्नी के माथे पर 32 टांके आए। इस घटना के लिए मैं अपने को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।
कौन सा ब्रांड आपका फेवरिट था?
मैं व्हिस्की पीता नहीं। रम और वोदका पीता था। वोदका में फ्यूल जो लैटेस्ट ब्रांड था, मेरा फेवरिट था। स्थिति यह थी कि जिस होटल में मेरे लिए कमरा बुक होता था उसमें फ्यूल की बोतलें पहले से रख दी जाती थीं।
शराब ने कुछ फायदे भी दिए होंगे?
शराब ने काफी कुछ दिया। शराब न पीता तो शर्मिष्ठा जैसी दोस्त न मिली होती। हम दोनों पार्टी में ही पहली बार मिले थे। शराब पीने के बाद ही एक बार पार्टी खत्म होने पर पदमा सचदेव और सुरेंद्र सिंह जी मिले, इन लोगों ने मुझे घर छोड़ा तो नशे की भावुकता में मैंने इनके पैर छू लिए। ये 20 साल पुरानी घटना है। वो रिश्ता आज तक कायम है। ज्यादातर ब्रेक मुझे दारू की पार्टी में ही मिले। जनसत्ता से निकाले जाने के बाद दारू की पार्टी में ही कई आफर मिले। सभी बड़े चैनलों के मालिकों ने वहीं आफर किए। दारू संपर्कशीलता को बढ़ाता है बशर्ते आप संयम में रहें और दूसरे को पीने दें। अटल जी के मैं बेहद नजदीक रहा, अब भी हूँ। यह रिश्ता कैसे घनिष्ठ हुआ, यह तो नहीं बताऊंगा पर उन्होंने एक दिन अपना प्रेस सलाहकार बनने के लिए कहा तो मैंने साफ मना कर दिया कि मैं सरकारी नौकरी नहीं करूंगा। कई लोग जानते भी हैं कि अटल जी के लाल किले के पहले भाषण को मैंने लिखा था। उसका एक डायलाग काफी हिट हुआ था जो पाकिस्तान के लिए कहा गया था, जंग करना चाहते हैं तो आइए जंग ही कर लें, लेकिन ये जंग दोनों मुल्कों में फैली बीमारियों से होगी, दोनों मुल्कों में जड़ जमा चुकी दुश्वारियों से होगी....। गोवा में एक बार बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक थी। वहां की एक तस्वीर पड़ी होगी हम लोगों के पास जिसमें अटल जी टीशर्ट और जींस पहने नारियल पानी पी रहे हैं। यह भी पूरी एक कथा है जिसे बताना ठीक नहीं है।
आपके उपर क्या क्या आरोप रहे हैं? आप खुद बता दें तो ज्यादा अच्छा।
कई आरोप रहे हैं। एक तो यही कि शराबी हूं। झूठ बोलने के आरोप लगे। परिचित की गर्लफ्रेंड छीनने का आरोप लगा।
आपको कौन सी कविता या शेर या गजल या गीत सबसे ज्यादा पसंद है?
दिनकर जी की कुछ लाइनें मुझे बेहद पसंद हैं। वे इस तरह हैं- अंधतम के भाल पर पावक जलाता हूं। बादलों के शीश पर स्यंदन चलाता हूं। मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं। उर्वशी, अपने समय का सूर्य हूं मैं।
आपको सबसे ज्यादा संतुष्टि किस चीज में मिलती है?
अपनी बेटी की मुस्कान देखकर संतोष होता है। डीपीएस से आकर जब वो कहती है कि मेरे यहां लालू यादव की भतीजी भी पढ़ती है और जब उनके पापा को पता चला कि मैं आपकी बेटी हूं तो उन्होंने खुद को आपका मित्र बताते हुए मुझे बेस्ट विशेज दीं। यह कहते हुए बेटी के चेहरे पर जो दर्प और गर्व देखता हूं, उससे संतोष मिलता है। इससे बड़ी खुशी मेरे लिए कोई नहीं हो सकती।
आपको दुख किस बात पर होता है?
मेरे घर में मेरा कोई अपना कमरा नहीं है। कमरे चार हैं। पर मेरा कमरा इन चारों में से कोई नहीं है। मुझे हमेशा से एकांत अच्छा लगता रहा है। यहां घर में एकांत नहीं मिलता। बचपन में सीढ़ियों के किनारे कोने में भंडरिया के कोने को ही अपना कोना मानकर उसी में रहता था। बड़ा अच्छा लगता था। कम से कम यह एहसास तो होता था कि इतना कोना मेरा है। मैं कई बार तब दुखी होता हूं जब मैं जो कहना चाहता हूं वह कह नहीं पाता और सामने वाले कुछ और अर्थ निकाल लेते हैं। अंतर्मुखी स्वभाव है। देहाती आदमी हूं। कोशिश करता हूं कि मैं जो सोच रहा हूं वही कहूं लेकिन कह नहीं पाता।
आलोक तोमर को उनके न रहने पर किस लिए याद करें? आपकी निजी इच्छा क्या है?
मुझे अपने मां के बेटे के तौर पर और अपनी बेटी के पिता के तौर पर याद करें, इससे ज्यादा खुशी मुझे और किसी चीज में नहीं होगी। वैसे जल्दी निपटने वाला नहीं...मेरी गुरबत पे तरस खाने वालों मुझे माफ करो, मैं अभी जिंदा हूँ, और तुम से ज्यादा जिंदा। इन दिनों तो खैर गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ।
दिल्ली के पूर्व पुलिस आयुक्त केके पाल से अदावत और उनके इशारे पर गढ़े गए डेनिश कार्टून मामले ने आपके जीवन के सहज रूटीन को काफी दिनों से बाधित कर रखा है। इस मामले में आपकी हिंदी पत्रकार जगत से क्या अपेक्षा है और आगे की क्या रणनीति है?
पहली बात तो हिंदी मीडिया के साथियों से मदद नहीं मिल पा रही है, यह सच है लेकिन यह भी सच है कि मुझे मदद की अपेक्षा भी नहीं। दरअसल कई साथियों को तो मजे लेने का बहाना मिल गया है। मीडिया जगत के साथियों के ये विवेक पर निर्भर करता है कि वे मदद करें या न करें। मैंने उनके कहने पर तो ये मामला शुरू नहीं किया। अकेले लड़ लूंगा। दुष्यंत की लाइनें हैं- हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही /हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया, हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही।
डेनिश कार्टून छापना या केके पाल से अदावत अगर कोई गलती थी तो ये मेरी गलती थी और इससे मैं खुद ही निपटूंगा। मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है। जो वकील मेरा मामला देख रहे हैं, दोस्त बन गए हैं, संजीव झा नाम है उनका। मुझसे कभी फीस नहीं मांगी। हां, इस प्रकरण के चलते मुझे भी दिक्कतें आ रही हैं। आईआईएमसी के डायरेक्टर के तौर पर मेरा सब कुछ हो गया था लेकिन पुलिस वेरीफिकेशन में इस मामले के चलते रुकावट आ गई। नार्वे में एक प्रोग्राम के सिलसिले में निमंत्रण मिला था लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला। तो ये सब दिक्कतें आईं। सबसे बड़ी दिक्कत मेरे परिजनों को तब हुई जब मैं तिहाड़ में था। मैं 12 दिन जेल में रहा और पत्नी व बिटिया यह सोचकर परेशान थीं कि जेल में मेरे साथ जाने क्या क्या हो रहा होगा। ये अलग बात है कि जेल में पप्पू यादव मुझे अंडे के पराठे खिलाते थे और बैडमिंटन खेलता था। पर उन लोगों ने तो फिल्मों की जेल देख रखी है। सोचते होंगे कि मैं चक्की पीस रहा हूं। तो ये सोचकर जो मानसिक यातना मेरी बेटी और पत्नी को हुई है, उसके लिए मैं केके पाल को कभी माफ नहीं कर सकता। केके पाल इन दिनों यूपीएससी का सदस्य है तो मैं यूजीसी की गवर्निंग बाडी का सदस्य हूं।
सच्चे क्षत्रिय और राजपूत की तरह कहता हूं-जो इसे जातिगत दर्प मानें, वे ठेंगे से, कि केके पाल के चलते मेरे परिजनों ने जो मानसिक यातना झेली है उसका बदला मैं न्याय की सीमा में लूंगा। मैं तब तक चैन से नहीं बैठूंगा जब तक वे अपने कर्मों के लिए दंडित नहीं होते।

Tuesday, February 10, 2009

आलोक तोमर. ............मीडिया के हीरो

आलोक तोमर. ............नाम ही काफी है। हिंदी मीडिया के इस हीरो से विस्तार से बातचीत -

-शुरुआत बचपन के दिन और पढ़ाई-लिखाई से करिए।
--27 दिसंबर सन 60 को चंबल घाटी के भिंड में पैदा हुआ। मुरैना जिले के गांव रछेड़ का रहने वाला हूं। इसी जिले में महिला डाकू पुतली बाई और क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल भी पैदा हुए थे। मातृसत्तात्मक परिवार है मेरा। माताजी एमए और बीएड करने वाली इलाके की पहली महिला हैं। पिता जी आठवीं पास थे। मां ने उन्हें एक तरह से मार-मार के पढ़ाया। माता जी जिस स्कूल में प्रिंसिपल थीं, वहां पिताजी टीचर बने। मेरे परिवार में भी बागी रहे हैं। हमारे यहां डाकुओं को सगर्व बागी बोलते हैं। लाखन सिंह तोमर दादाजी के मौसेरे भाई थे जो जाने माने बागी थे। प्राइमरी से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई भिंड में की। घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल होने और मां-पिता के टीचर होने का फायदा यह हुआ कि मुझे सीधे कक्षा चार में एडमिशन दिलाया गया और 17 साल की उम्र में ही भिंड के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया महाविद्यालय से वर्ष 1978 में बीएससी कंप्लीट कर लिया। मां-पिता डाक्टर बनाना चाहते थे इसलिए जबरन बायोलाजी पढ़वाया। बैच का सबसे जूनियर छात्र था। पढ़ाई के साथ खेती भी करता था। 21 किमी साइकिल से चलकर खेत पहुंचता था। रात में ट्यूबवेल की छत पर सोता था, सुबह ट्यूबवेल की मोटी धार से नहाता था, कलेवा आता था तो पेट पूजा हो जाती थी।
कोर्स से हटकर किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था। मां-पिता के पोलिटिकल साइंस में पढ़े होने से अरस्तू, कांट्स, सुकरात आदि को पढ़ गया था और लोकतंत्र, साम्राज्यवाद व साम्यवाद के बारे में जानने लगा था। घर में वीर अर्जुन और हिंदुस्तान अखबार आते थे। इनका नियमित पाठक था। मेरी एक दीदी एमए हिंदी से कर रहीं थीं तो उनसे शेखर एक जीवनी पढ़ने को मिला तो मैं अज्ञेय का मुरीद हो गया। अज्ञेय की अन्य किताबों के लिए भिंड शहर के गोल मार्केट लाइब्रेरी पहुंचा। वहां से अपने-अपने अजनबी को घर लाकर पढ़ा। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा जीतता था। कह सकते हैं, बकवास करने की आदत बचपन से है। मेरे नानाजी ठाकुर पुत्तू सिंह चौहान अपने जमाने की मशहूर पत्रिका सरस्वती के संपादक मंडल में थे। उन्होंने मेरी मां को बेहतर शिक्षा दी। मां की भाषा बहुत अच्छी है। हालांकि उनको अंग्रेजी अच्छी नहीं आती थी पर मुझे अंग्रेजी पढ़ाने-सिखाने के लिए जी-जान से जुटी रहती थीं। शायद उन्हें यह अंदाजा था कि आगे अंग्रेजी की उपयोगिता ज्यादा है। मां-पिता की इच्छा के अनुरूप मुझे डाक्टर बनने के लिए पीएमटी की परीक्षा देनी थी पर उम्र परीक्षा में शामिल होने की हुई नहीं।
इसी दौरान धर्मयुग का एक अंक हाथ में पड़ गया। बाद में इस पत्रिका के कई अंक पढ़े। उदयन शर्मा और एसपी सिंह का लिखा बहुत पढ़ता था। तभी समझ में आया कि लिखना भी कोई विधा है। उदयन शर्मा मेरे मानस गुरु और एक तरह से प्रेरणा बने। रविवार में उदयन जी का लिखा बहुत पढ़ा। उन्हें पत्र लिखने लगा। छपने के लिए कुछ लिखकर भेजने लगा। उदयन जी का जवाब आया कि निबंध की शैली में नहीं, रिपोर्ट की शैली में लिखो। भिंड की लाइब्रेरी में एक बार नवभारत टाइम्स देखा तो उसमें टाइम्स आफ इंडिया प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए वैकेन्सी निकली थी। मैंने भर दिया। नभाटा वालों ने शायद भिंड को मुंबई के पास समझा और मुझे टेस्ट के लिए मुंबई आफिस बुला लिया। घर वालों को बोला कि मैं ग्वालियर जा रहा हूं और निकल पड़ा मुंबई के लिए। रेल में रिजर्वेशन भी होता है, तब मुझे यह पता न था। मेरी उम्र 18 की नहीं हुई थी। पंजाब मेल के जनरल डिब्बे में बैठकर मुंबई गया। बीच में मेरे जूते गायब हो चुके थे। नंगे पांव स्टेशन पर उतरा। 12 रुपये में प्लास्टिक का चप्पल खरीदा। नभाटा आफिस बांबे वीटी के सामने ही था। मेरा हुलिया देख दरबान ने घुसने नहीं दिया लेकिन जब उसे टेस्ट के लेटर वगैरह दिखाए तो अविश्वास के साथ घूरते हुए अंदर जाने दिया।
तब मेरा नाम हुआ करता था आलोक कुमार सिंह तोमर 'पतझर'। इसी नाम से धर्मयुग में गीत लिखगा था। नभाटा में रिटेन दिया और टाप कर गया। मेरा इंटरव्यू डा. धर्मवीर भारती, राम तरनेजा और फिल्म अभिनेता राजेंद्र कुमार ने लिया। डा. भारती बोले- ''तुम अभी 18 के नहीं हुए हो और नौकरी देने का मतलब है कि बाल श्रम का आरोप लगना। तुम हम लोगों को जेल में बंद करवाओगे!'' मैंने कहा- ''देर से पैदा होने पर मेरा क्या कसूर।'' आखिरकार उन लोगों ने मुझे नहीं लिया क्योंकि कानूनन यह संभव न था। मुझे लौटने का किराया दिलवा दिया। ग्वालियर लौटा तो अखबार में काम करने का कीड़ा अंदर पैदा हो चुका था। चंबल वाणी, स्वदेश, भास्कर आदि अखबारों के दफ्तर के चक्कर लगाने लगा। संघ की आइडियोलाजी वाले अखबार दैनिक स्वदेश के संपादक राजेंद्र शर्मा हुआ करते थे। उन्होंने मुझे प्रूफ रीडर पद पर 175 रुपये की तनख्वाह पर भर्ती कर लिया। तीन माह बाद पीटीआई और यूएनआई की खबरों के हिंदी अनुवाद की मेरी योग्यता को देखते हुए मुझे फ्रंट पेज प्रभारी बना दिया गया और तनख्वाह कर दी गई 350 रुपये। मैंने कहा कि मुझे इस अखबार में लेख भी लिखना है। पर मेरी उम्र का हवाला देते हुए और कम अध्ययन होने की आशंका व्यक्त करते हुए मना कर दिया गया।
उसी दौरान एक घटना हुई। मुरैना के एक गांव के स्कूल में विषाक्त दलिया खाकर 23 बच्चे मर गए। इस घटना को दबा दिया गया था। उस समय अर्जुन सिंह एमपी के सीएम हुआ करते थे। तत्कालीन विधायक के मुंह से इस घटना के दबाए जाने के बारे में एक जगह मैंने सुन लिया। मैं उस गांव गया और सबसे बातचीत की और फ्रंट पेज पर छाप दिया। जनसंघ तब विपक्ष में था और यह अखबार भी उसी के विचारधारा का था। विधानसभा में हंगामा मच गया। अर्जुन सिंह ने डीएम से फोन पर पूछा तो डीएम ने बता दिया कि जिस गांव में घटना होने की बात बताई जा रही है, उस गांव का तो अस्तित्व ही नहीं है। मतलब स्टोरी को फर्जी करार दिया गया। मैं फिर गांव पहुंचा और उस गांव के सरकारी पशु चिकित्सालय, खाद्य निगम आफिस आदि के डिटेल और गांव के उन परिजनों की तस्वीरें जिनके बच्चे नहीं रहे, इकट्ठा कर फिर फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया।
तब 72 प्वाइंट लीड की सबसे बड़ी हेडिंग होती थी। उसके उपर के फांट के लिए बड़े पोस्टर वाले फांट का इस्तेमाल करना होता था। ये स्टोरी बड़े पोस्टर वाले फांट में 108 प्वाइंट में प्रकाशित हुई। मुख्यमंत्री झूठ बोलते हैं हेडिंग और आलोक कुमार सिंह तोमर की बाइलाइन के साथ स्टोरी प्रकाशित हुई। फिर तो इतना हंगामा हुआ कि अर्जुन सिंह को गांव आना पड़ा। तब पहली बार किसी सीएम या मंत्री को नजदीक से देखा था। अर्जुन सिंह से मुझे मिलवाया गया तो मैं डरता हुआ पहुंचा था कि जाने अब क्या होगा। अर्जुन सिंह को जब बताया गया कि यही आलोक कुमार सिंह तोमर हैं तो उन्होंने लगभग 18 साल के ''बच्चे'' को ऊपर से नीचे तक देखा और बोले कि यह जज्बा और हिम्मत काबिले-तारीफ है। वे मुझे अपने साथ हेलीकाप्टर में बिठाकर उस गांव ले गए। तब पहली बार हेलीकाप्टर में बैठा था और सीएम के साथ वाले लोग मुझसे उस गांव का रास्ता पूछ रहे थे पर उपर से गांव का रास्ता मुझे सूझ ही नहीं रहा था।

-आप बता रहे थे कि घरवाले डाक्टर बनाना चाहते थे और आपने पत्रकारिता शुरू कर दी। घरवालों ने आपको यूं ही पत्रकारिता करने दिया?
--घर में मुझे डंडा पड़ चुका था पीएमटी छोड़ने के लिए। मेरे लेखन के प्रशंसक बढ़ने लगे थे तो मुझे लगने लगा कि अब मुझे लिखने पढ़ने का काम ही करना है और हर हाल में पत्रकार बनना है। एक बार तो दो सिपाही आए और डिप्टी एसपी साहब बुला रहे हैं, कह कर साथ ले गए। पहुंचा तो पता चला कि डिप्टी एसपी साहब को मेरी छपी कविताएं और रिपोर्ट अच्छी लगती थी सो उन्होंने शाबासी देने और आगे इसी तरह लिखते रहने की नसीहत देने के लिए बुलवाया है। डाक्टरी के सपने को तोड़ने के बाद मैंने एमए हिंदी साहित्य में एडमिशन ले लिया था।

-आपने पहली स्टोरी ब्रेक की और सीएम तक हिल गए। दूसरी बड़ी स्टोरी क्या ब्रेक की?
--एक बार रछेड़ इलाके के भिडोसा गांव में शादी में गया था। वहां देखा कि एक लंबे से व्यक्ति को लोग बहुत ज्यादा सम्मान दे रहे हैं और उसका खास ध्यान रख रहे हैं। मुझे भी उत्सुकता हुई। पता चला कि वे मशहूर बागी पान सिंह तोमर हैं जो कभी बाधा दौड़ में टोक्यो एशियाड में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। मतलब, एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बागी बन गया। हां, एक चीज बताना भूल गया। उन दिनों मैं यूनीवार्ता का पार्ट टाइम स्टिंगर भी बन चुका था। मैंने पान सिंह तोमर से बातचीत करने के बाद उनके खिलाड़ी से बागी बनने की यात्रा पर यूनीवार्ता के लिए आठ टेक में स्टोरी फाइल कर दी। देश के सभी बड़े हिंदी अंग्रेजी अखबारों ने इस स्टोरी को फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया। स्टोरी छपने के बाद एमजे अकबर और उदयन शर्मा सरीखे लोग पान सिंह तोमर के इंटरव्यू के लिए आए। माध्यम बना मैं। बाद में इन्होंने जो स्टोरी लिखी तो अपने नाम के साथ मेरा नाम भी जोड़ा। संयुक्त बाइलाइन गई। मतलब MJ Akbar with Alok। उदयन शर्मा / आलोक तोमर। इससे दिल्ली में मेरी पहचान बढ़ी।

-पान सिंह तोमर की स्टोरी के जरिए दिल्ली की पत्रकारिता में एक तरह से आपके नाम का प्रवेश हो चुका था। दिल्ली यात्रा कैसे हुई?
--उन दिनों दिल्ली में दैनिक हिंदुस्तान की संपादक हुआ करती थीं शीला झुनझुनवाला। मैंने इस अखबार के संपादकीय पेज के लिए एक लेख भेजा- क्या भारत अणु बम बनाए। तब पोखरण एक हो चुका था। मेरा लेख संपादकीय पेज पर मुख्य आर्टिकल के रूप में प्रकाशित हुआ। शीला जी की चिट्ठी भी आई, लिखते रहिए के अनरोध के साथ। मैं विज्ञान आधारित लेखों के फटाफट छपने को देखते हुए अपनी विज्ञान की पढ़ाई का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान लेखक बनने की ओर बढ़ चला। दैनिक हिंदुस्तान में लगातार छपने लगा। उन्हीं दिनों एमए का रिजल्ट आया। 70 फीसदी नंबर हिंदी में आए जो एक रिकार्ड बना। और इससे रिकार्ड टूटा अटल बिहारी वाजपेयी का जो ग्वालियर के इसी महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय के हिंदी के छात्र रहे थे और उन्होंने तब 59 प्रतिशत अंक हिंदी में पाकर रिकार्ड बनाया था। तब इसका नाम विक्टोरिया कॉलेज था। मेरे बारे में तब अखबारों में छपा, आलोक तोमर का सुयश शीर्षक के साथ। इसमें मेरी फोटो भी छपी। एमए टाप करने के बाद मेरी अस्थायी नौकरी महिलाओं के कालेज में लग गई। इस कालेज में जिन्हें मैं पढ़ाता वो मुझसे बड़ी लड़कियां और औरतें हुआ करती थीं। मैं जब उनके सामने विद्यापति, बिहारी, देव, जायसी के लिखे ऋंगार की व्याख्या करता तो वे मुझे हूट कर देती थीं। यहां तनख्वाह 1600 रुपये थे जो बहुत अच्छी थी पर लड़कियों-औरतों के इस व्यवहार से मैंने नौकरी छोड़ दी और फिर स्वदेश में आ गया। इन्हीं दिनों में मैंने एक आफ बीट विषय, जो मुझे हमेशा से पसंद रहे हैं पर स्टोरी की। अटल जी के बचपन व उनके कालेज पर, बगैर अटल जी को पेश किए। अटल जी तब भी महान नेता हुआ करते थे। स्वदेश के पहले संपादक भी वही थे। यह स्टोरी अटल जी को दिखाई गई। जब वे आए तो मुझे नाम लेके बुलाया और पीठ ठोंकी। तब मेरी तनख्वाह 450 रुपये हुआ करती थी जिसे बढ़ाकर 500 रुपये कर दिया गया।
उन दिनों मैं और प्रभात झा स्वदेश अखबार के रील वाले कमरे में ही सो जाते थे। प्रभात झा अब सांसद हैं। इसी बात पर याद आ रहा है मेरे तीन रुम पार्टनर इन दिनों सांसद हैं। प्रभात झा, राजीव शुक्ला और संजय निरुपम। स्वदेश में रहते हुए टीओआई के लिए एक बार फिर टेस्ट दिया था जिसमें पास हो गया पर अप्वायंटमेंट लेटर स्वदेश के पते पर आया तो मुझे मिला ही नहीं। इस तरह टीओआई में कभी काम नहीं कर पाया। ग्वालियर में मुझे लगने लगा था कि अब इस शहर में मेरा निबाह नहीं होगा। सीमाएं छोटी महसूस होने लगीं। जितना करना, बनना, पाना था वो हो चुका था। स्वदेश में 1978 से 81 लास्ट तक रहा। सरकारी नौकरी करनी नहीं थी, डाक्टर बनना नहीं था। ऑफिस से साइकिल खरीदने के लिए एडवांस मांगा और 1981 लास्ट में दिल्ली आ गया। मेरे मित्र हरीश पाठक दिल्ली प्रेस में नौकरी करते थे। वे कालेज के मेरे सीनियर थे। दिल्ली में स्टेशन पर उतरा तो आटो वाले ने निजामुद्दीन से आरके पुरम संगम सिनेमा के पीछे का 70 रुपये किराया उस जमाने में ले लिया। दिल्ली में हिंदुस्तान की संपादक शीला जी, माया के ब्यूरो चीफ भूपेंद्र कुमार स्नेही, दिल्ली प्रेस वालों से, यूएनआई के शरद द्विवेदी जी से मिला। नौकरी के लिए भटकता रहा।
यूएनआई के शरद द्विवेदी जी ने कुछ लिखकर दिखाने के लिए कहा। बाहर निकला तो प्यास लगी थी। पानी वाले से 5 पैसा प्रति गिलास के हिसाब से पानी पीने लगा। उससे बातचीत भी करने लगा। एक गिलास पानी पिलाने से मिले 5 पैसे में उसे कितना लाभ होता है, पूछने लगा। बातचीत काफी हो गई तो लगा कि ये तो स्टोरी है। आकाशवाणी के सामने रिजर्व बैंक की सीढ़ियों पर बैठकर प्यास बुझाने वाला खुद ही प्यासा शीर्षक से पूरी स्टोरी लिख दी। उस बंदे को पांच पैसे में से सिर्फ आधे पैसे ही लाभ के रूप में मिलते थे। शरद जी ने देखा और स्टोरी को अपने पास रख लिया। वहां से अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी चला गया जो मेरा फेवरिट अड्डा था। इस लाइब्रेरी से रिफरेंस बुक मिल जाया करती थीं और उन्हें पढ़कर - टीपकर माया और हिंदुस्तान टाइम्स में विज्ञान विषयों पर लिखा करता था। यहां से निकला तो देखा कि सांध्य टाइम्स में बाटम स्टोरी छपी है- वार्ता से रिलीज। स्टोरी मेरी पानी वाली थी। मैं दौड़ते हुए शरद द्विवेदी जी के पास पहुंचा। मैंने इस स्टोरी के मेहनताने की मांग की। उन्होंने कहा कि अभी लोगे तो कम रुपये मिलेंगे, अगले दिन लोगे, जब स्टोरी कहां कहां छपी है, इसकी इम्पेक्ट रिपोर्ट आ जाएगी, तो ज्यादा जगहों पर छपने से हो सकता है ज्यादा रुपये मिल जाएंगे। मैंने अपनी जेब की ओर देखा, 10 रुपये थे, आज का काम चल जाएगा, सो उनसे मैंने कल लेने को कह दिया। और अगले दिन 250 रुपये मिले। इस तरह से खून मुंह लग गया। मैं स्थायी लेखक रख लिया गया। जब मेरा महीने का भुगतान ज्यादा होने लगा तो मुझे ट्रेनी जर्नलिस्ट रख लिया गया। यहां से नौकरी किस तरह गई, वो भी मजेदार घटना है। खेल के मामले में मैं शून्य था और हूं। भले ही मैं प्रभाष जोशी का शिष्य हूं तो क्या। उन दिनों मैं नाइट शिफ्ट लेता था क्योंकि दिन में दूसरे अखबारों मैग्जीनों के लिए लिखता था और लाइब्रेरी में पढ़ाई करता था। एक दिन नींद के झोंके में खेल की एक खबर का अनुवाद करने में मर चुके एक खिलाड़ी से शतक बनवा दिया। अगले दिन कई अखबारों से शिकायत आई और मैं नौकरी से निकाल दिया गया। एक बार फिर सड़क पर आ गया। यूएनआई की नौकरी के दौरान ही हरिशंकर व्यास से मुलाकात हुई थी जिन्होंने जनसत्ता के जल्द प्रकाशन शुरू होने की जानकारी दी थी। यह बात सन 83 की है। मैंने संपर्क किया तो मेरा टेस्ट हुआ और इसमें टॉप कर गया। इंटरव्यू में सेकेंड पोजीशन पर आया। जनसत्ता में ट्रेनी उप संपादक रख लिया गया। पर मैं फैल गया कि मैं रिपोर्टर बनूंगा। व्यास जी ने मुझे रिपोर्टर बनवाया। तब राम बहादुर राय चीफ रिपोर्टर थे। मुझे क्राइम रिपोर्टिंग पसंद थी। प्रभाष जोशी जी को मेरा लिखा पसंद आता था, मेरी पीठ ठोंकते थे। 31 अक्टूबर सन 84 की बात है। रोजाना की तरह पुलिस कंट्रोल रूम को फोन कर किसी नए वारदात की सूचना के बारे में जानकारी के लिए फोन मिलाया। जानकारी मिली की पीएम हाउस में गोली चली है, तुगलक रोड थाने से पता कर लीजिए। थाने फोन किया तो वहां से सपाट तरीके से बताया गया कि इंदिरा गांधी मर लीं कबकी, लाश लेने गए हैं सब लोग। मैं उस समय चौधरी चरण और देवीलाल के पास गया हुआ था। वहीं शरद यादव भी थे। उस वक्त मेरे पास पैसे नहीं थे। मैंने शरद यादव से 50 रुपये मांगे और भागा। पहले प्रभाष जी को फोन किया। उनका कहना था कि गोली की बात तो सही है पर मौत हुई या नहीं, यह कनफर्म नहीं है। मैंने उन्हें मृत्यु की पुष्ट जानकारी दी। प्रभाष जोशी जी ने जनसत्ता का स्पेशल इशू निकालने की तैयारी कर ली। मैं एम्स गया, सारी जानकारियां इकट्ठी की और फोन पर ही खबरें बोलीं। मैं खबर लिखते समय कभी फाइव डब्लू और वन एच से शुरुआत नहीं करता। मैंने इंट्रो लिखा या बोला- आज दो हत्याएं हुईं। एक इंदिरा गांधी की। एक मनुष्य पर मनुष्य के विश्वास की। चूंकि बाडीगार्डों ने गोली मारी थी इसलिए एक तरह से विश्वास की हत्या की गई थी। जनसत्ता का यह स्पेशल इशू ब्लैक में बिका। बाद में दंगे शुरू हुए तो रो-रो के खबरें लिखता था क्योंकि जो कुछ सामने देखा था, वो बेहद भयावह था। उन दिनों मेरी उम्र 22 की रही होगी। यह टर्निंग प्वाइंट था मेरे लिए। सरदारों के बीच मैं बेहद लोकप्रिय हुआ क्योंकि मैंने उनका पक्ष लिया था। बाद में उन लोगों ने सरोपा वगैरह भेंटकर मुझे सम्मानित किया।
जब एनबीटी में एसपी सिंह और रविवार में उदयन शर्मा संपादक बने तो दोनों ने नौकरी के लिए मुझे बुलाया पर प्रभाष जी ने जाने नहीं दिया। उनका वचन मेरे लिए पत्थर की लकीर है क्योंकि वे पिता तुल्य हैं। हिंदी मीडिया के आज तक के इतिहास में संपूर्ण संपादक अगर कोई हुआ है तो वे प्रभाष जोशी ही हैं। एसपी सिंह, उदयन शर्मा और राजेंद्र माथुर के साथ कई अच्छाइयां हैं पर सबमें कोई न कोई एक ऐसी चीज रही जिसके चलते उन्हें कंप्लीट एडीटर नहीं कहा जा सकता। एसपी सिंह के लिए, श्रद्धापूर्वक कहूँगा कि खबरों की उन जैसी समझ कहीं नही देखी, उन्होंने पत्रकारिता को पूरी एक पीढी दी। जब रविवार में जाने से मैंने मना किया तो राजीव शुक्ला के पास आफर आया और वे जनसत्ता छोड़कर रविवार चले गए। बाद में मुझे चीफ रिपोर्टर बना दिया गया। 23 के उम्र में यह जिम्मेदारी मेरे लिए बड़ी थी। टीम में सभी लोग उम्र में सीनियर थे, सब अंकल की उम्र के थे। मैं अच्छा एडमिनिस्ट्रेटर नहीं हूं। सारा काम मेरे सिर पर आ जाता था। चीफ रिपोर्टरी बहुत दिन चली नहीं। प्रभाष जी ने मुझे 6 साल में 7 प्रमोशन दिए। सहायक संपादक / स्पेशल करेस्पांडेंट के रूप में काम किया। उन्हीं दिनों (सन् 1993 में) एक घटना घटी जिसके चलते प्रभाष जोशी जी ने मुझे जनसत्ता से बाहर कर दिया और मैं फिर सड़क पर आ गया था। मेरे पासवर्ड का इस्तेमाल करके किसी ने मेरे आफिस के कंप्यूटर से साहित्यकार गिरिराज किशोर के एक आर्टिकल का संपादन कर उसका अर्थ ही उल्टा कर दिया था। यह एक साजिश थी। बाद में इसकी जांच कराई गई तो कारनामा मेरे कंप्यूटर से हुआ पाया गया और प्रभाष जी ने मुझे बाहर कर दिया। हालांकि उन्होंने कृपा यह की कि समयावधि न होने के बावजूद ग्रेच्युटी दिलवाई, केके बिड़ला फाउंडेशन फेलोशिप दिलवाई।
चंद्रा स्वामी से डेढ़ लाख रुपये लेकर मैंने शब्दार्थ फीचर एजेंसी शुरू की। मैं इसे स्वीकार करता हूं कि मैंने चंद्रास्वामी से फीचर एजेंसी खोलने के लिए पैसे मांगे थे और उन्होंने अपने दराज में हाथ डालकर पचास पचास हजार की तीन गड्डियां सामने रख दी थीं। फीचर एजेंसी का काम चल निकला था। तब तक शादी हो चुकी थी। बेटी थी। बाद में सन 2000 में इंटरनेट न्यूज एजेंसी डेटलाइन इंडिया नाम से शुरू कर दी। टीवी में भी काफी काम किया। जी न्यूज और आज तक में रहा। टीवी पर चुनाव के विशेष प्रोग्राम करता रहा।

-आपने जैन टीवी के मालिक जेके जैन को एक बार पीटा था, क्या यह सही है?
--हां यह सही है। आज तक छोड़कर जैन टीवी चला आया था। यहां स्थितियां ठीक नहीं थी तो छोड़ दिया। तनख्वाह के पैसे नहीं दे रहे थे तो एक बार अशोका होटल में जैन मिल गए। उन्हें पीटा। वे बीजेपी से टिकट लेकर चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्हें टिकट नहीं मिलने दिया। डा। जेके जैन सर्जन तो अच्छा है पर आदमी बुरा है। मैंने तय कर लिया है कि जब तक मैं जीवित हूं उसे किसी बड़ी पार्टी की टिकट नहीं मिलने दूंगा चुनाव लड़ने के लिए।

-आप एस1 चैनल और सीनियर इंडिया मैग्जीन में रहे। वहां से भी आप निकाल गए थे?
--मैंने जहां भी नौकरी की वहां से अमूमन निकाला ही गया। अलका सक्सेना मेरी तबसे दोस्त हैं जबसे वे दो चोटियां बांधती थीं। उनके कहने पर एस1 के विजय दीक्षित ने राजनैतिक संपादक बना दिया। यहीं पर मैंने मैग्जीन निकालने का आइडिया दिया। हालांकि सीनियर इंडिया नाम मुझे पसंद नहीं था पर दीक्षित जी इस नाम को पहले ही बुक कराकर बैठे थे। इसी मैग्जीन में एक स्टोरी छपी जिसमें बताया गया था कि तत्कालीन दिल्ली पुलिस के आयुक्त केके पाल के बेटे अमित पाल जो सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं, वे कोर्ट में उन अपराधियों का डिफेंस करते हैं जिन्हें केके पाल के निर्देश पर दिल्ली पुलिस पकड़ती है। केके पाल ने मिलने के लिए बुलवाया। बाद में धमकाने लगे। मैं उनके धमकाने में आने के बजाय इसी विषय पर एक नई स्टोरी के लिए कई सवाल फैक्स कर उनसे जवाब मांगा। वो फैक्स एक अपराधी अपने हाथ में लेकर मेरे आफिस मुझे ही धमकाने आ गया। तो इसी पर एक स्टोरी छाप दी गई कि सरकारी करेस्पांडेंट अपराधी ले के आया। केके पाल की नजर मेरे पर तिरछी थी। उसी समय डेनिश कार्टून को हम लोगों ने मैग्जीन में प्रकाशित कर दिया और केके पाल को मुद्दा मिल गया। उन्होंने मुझे उठवा लिया। मुझे तिहाड़ में हाई सिक्योरिटी जिसे काल कोठरी भी कहते हैं, में यह कहकर रख दिया गया कि जेल में मुसलमान ज्यादा हैं इसलिए मेरी जान को खतरा हो सकता है। मुझे जेल भेजे जाने के बाद साथियों और सीनियरों ने अदालत जा कर सरकार पर दबाव बनाया। इंटरनेशनल प्रेसर भी क्रिएट होने लगा। बाद में जमानत पर बाहर आया। उसके बाद की ही बात है कि मैं और मेरी पत्नी रायपुर से आ रहे थे। रायपुर में हम लोगों ने राज्यपाल के साथ नाश्ता किया था, सीएम के साथ लंच किया और मैंने डिनर अकेले हवालात में किया। धारा 420 के साथ एक पुराना केस चल रहा था, उसमें केके पाल की कृपा से एक बयान के आधार पर पुलिस ने मुझे अरेस्ट कर लिया। हालांकि पहली पेशी के साथ ही यह केस खत्म हो गया। सच कहूं तो प्रतिष्ठान की दंड मूलक विडंबनाएं अभी भी भुगत रहा हूं।

-जीवन में आपने प्रेम किया या सीधे शादी कर ली?
--जब मैं ग्वालियर में एमए प्रीवियस में था तो कस के प्रेम किया। प्रेम कविताएं लिखीं। वो मेरे से जूनियर थीं। बंगाली लुक लगती थीं। उनकी जिद थी कि मैं सरकारी नौकरी करूं तभी वो शादी करेंगी। वो नवगीत में पीएचडी लिख रही थीं। बाद में उन्होंने शादी किसी और से की। आजकल वो प्रोफेसर हैं। इसके भी पहले, किशोरावस्था में मैंने फिल्म गुड्डी देखी थी। इसमें जया जी मुझे बेहद भा गईं। मासूम चेहरा और ओस से भीगी आवाज़। मैं उनसे प्रेम करने लगा। उन्हें प्रेम में डूबी एक लंबी चिट्ठी भी लिख भेजी। मैंने तय कर लिया था कि जया जी से ही शादी करूंगा। जया जी से शादी के लिए मैंने बंगाली सीखने का ठानी। बंगाली रैपिडेक्स ग्रामर कोर्स खरीदकर सीखने की शुरुआत भी कर दी। बाद में पता चला कि जया जी से मेरी शादी नहीं हो सकती। हालांकि तब भी मैंने तय कर लिया था कि मैं जया जी जैसी या उनसे सुंदर लड़की से ही शादी करूंगा। और किया भी। सुप्रिया, मेरी पत्नी, बंगाली हैं और, यह मैं जया जी को भी बता चुका हूँ की उनसे सौ गुना ज्यादा खूबसूरत हैं। उनसे मैंने प्रेम किया और शादी की। दिल्ली आने पर जो पहली दोस्त बनी वो भी बंगाली। नाम- शर्मिष्ठा जो विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी की बेटी हैं। हम दोनों साथ खूब घूमते थे। बीअर, जिन, वोदका पीते रहते थे। हम दोनों ही स्वभाव के यायावर रहे। बाद में हम लोगों ने विश्लेषण किया कि हम दोनों अगर एक साथ रहने लगें तो पट नहीं सकती क्योंकि दोनों का मिजाज एक जैसा था। शर्मिष्ठा आज भी मेरे घनिष्ठ मित्रों में से एक हैं। वे कथक की बेहतरीन डांसर हैं।

-आपने सुप्रिया से शादी की। उनसे मुलाकात कैसे हुई। शादी कैसे संभव हो पाई।
--सुप्रिया दिल्ली प्रेस में काम करती थीं। असाध्य रूप से सुंदर थीं और हैं। दिल्ली प्रेस में उनके एक साथी उन पर मर मिटे थे। वे साथी सुप्रिया को लेकर मेरे पास आए इंप्रेशन झाड़ने के लिए। इतवार का दिन था। दिल्ली में बम विस्फोट होने के चलते आफिस में काम ज्यादा था इसलिए मैं उन लोगों से बातचीत कम कर पाया और काम में ज्यादा उलझा रहा। नंगे पांव आफिस में इधर-उधर टहलता रहा। मैं आफिस में नंगे पांव ही रहता था। मैं ठीक से सुप्रिया को तब देख भी नहीं पाया था। वे बोलीं, सर आपके पास टाइम नहीं है। मैं चल रही हूं। मैं उन्हें छोड़ने के लिए बाहर आया और उनसे उनका नाम पूछा। उन्होंने बताया- सुप्रिया रॉय। मेरी तो लाटरी खुल गयी। इतनी सुंदर कन्या, ऊपर से बंगाली। मैंने उनसे अटकते हुए बांग्ला में बातचीत शुरू कर दी। मैंने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए उनसे बात न कर पाने के लिए माफी मांगी। सुप्रिया का ताव और गुस्सा थोड़ा कम हुआ। सुप्रिया चली गईं पर उनका सुंदर चेहरा मेरे चेहरे के सामने से हट नहीं रहा था। अगले दिन मैंने उन्हें उनके आफिस फोन किया। उन्हें किसी बहाने बुलाना चाहता था, देखने के लिए। मैंने कहा कि उस्ताद अमजद अली खान का इंटरव्यू करने चलना है, तुम भी साथ चलो। उस्ताद अमजद अली खान मेरे मित्र थे। उनसे मैंने बता दिया था कि लड़की पटाने के लिए ला रहा हूं, जरा मेरी झांकी जमा देना। तीसरे, चौथे दिन फिर फोन किया। मैंने उनसे कहा कि हाफ डे लेकर आ जाओ। वो बोलीं कि नौकरी चली जाएगी। मैंने कहा कि नौकरी छोड़ के चली आओ। वे आईं और उन्हें स्कूटर से प्रगति मैदान ले आया। मैंने उनसे एक वाक्य में सवाल पूछा और कहा कि जवाब हां या ना में देना। मैंने पूछा कि क्या आप मुझसे शादी करेंगी? वो जवाब हां या ना में देने की बजाय आधे घंटे तक घुमाती रहीं। बाद में बोलीं कि मां-पिता कहेंगे तो कर लूंगी। वहां से मैं सुप्रिया को लेकर गोल मार्केट गया। वहां सुप्रिया की फोटो खिंचवाई और एक फोटो अम्मा के पास यह लिखकर भेजा कि ये आपकी बहूं बनेंगी। एक तस्वीर भूतपूर्व प्रेमिका को भेजा कि देखो, ये तुमसे ज्यादा सुंदर हैं। इसी बीच प्रभाष जी ने मुझे जनसत्ता, मुंबई भेज दिया था। मैंने उनसे सुप्रिया के दिल्ली में होने की बात कहते हुए मुंबई जाने से मना कर दिया तो उन्होंने शादी करा देने की गारंटी देते हुए मुझे मुंबई जाने को कह दिया। बाद में प्रभाष जी मेरे लिए सुप्रिया को मांगने की खातिर नारियल वगैरह लेकर सुप्रिया के मां-पिता से मिले। उन्होंने मेरे बेहतर भविष्य की गारंटी दी और शादी के लाभ गिनाए। उधर, मुंबई में मेरा मन नहीं लग रहा था और मैं फिर दिल्ली भाग आया। शादी 1990 में हुई।

-''गुड्डी'' में जया जी को देखकर आप उनसे प्रेम करने लगे और प्रेम पत्र भी लिखा, शादी तक का प्लान कर डाला। क्या कभी ये बात जया बच्चन जी को बताई?
--हां, बताई। केबीसी लिखने के लिए मुंबई में था। कौन बनेगा करोड़पति उर्फ केबीसी का नाम, इसके डायलाग...लाक कर दिया जाए...आदि ये सब मेरा लिखा है। हां, तो कह रहा था कि केबीसी को लेकर अमित जी के घर पर मीटिंग में देर रात तक रहता था तो वहां जया बच्च्न भी होती थीं। एक दिन उन्हें अकेले में बताया कि आप से मैं कभी प्यार करता था और शादी करना चाहता था। साथ ही यह भी बताया कि जब यह समझ में आया कि शादी नहीं हो सकती आपसे तो मैंने आपकी ही तरह किसी लड़की से शादी करने की ठानी थी और ऐसा किया भी। इस पर जया जी ने सुप्रिया की तस्वीर मांगी। जब उन्हें दी तो उनका कहना था कि सुप्रिया तो मुझसे ज्यादा सुंदर है। मुझे बेटी चाहिए थी और बेटी मिली भी। बिटिया का नाम है मिष्टी।