Friday, August 21, 2009

लेकिन बरबाद होती बीजेपी माने तब न...

-निरंजन परिहार-
शिमला में बीजेपी की चिंतन बैठक के अपने भाषण में लाल कृष्ण आडवाणी ने भले ही कहा कि जसवंत सिंह को भाजपा से निकाले जाने का उनको दुख है। लेकिन उन्होंने यह कहा कि जसवंत को निकालना जरूरी हो गया था। क्योंकि अपनी किताब में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह पार्टी के सिद्धांतों और आदर्शों के खिलाफ था। लेकिन बीजेपी के इन लौह पुरुषजी से यह सवाल करने की हिम्मत किसी ने नहीं की कि जसवंत सिंह ने तो सिर्फ अपनी किताब में ही लिखा है, लेकिन आप तो पाकिस्तान की धरती पर उनकी मजार पर गए। श्रद्धा के साथ फूल चढ़ाए। अपना सर झुकाया। जिन्ना को महान बताया। और यह भी कहा था कि जिन्ना से ज्यादा धर्म निरपेक्ष नेता भारत में दूसरा कोई हुआ ही नही। यह पूरी दुनिया जानती है कि भाजपा अपने जसवंत सिंह को बहुत बड़ा नेता बताती रही है। और सच कहा जाए तो भाजपा में जो सबसे बुध्दिजीवी और पढ़े लिखे लोग है, उनमें जसवंत सिंह सबसे पहले नंबर पर देखे जाते रहे हैं। लेकिन सिर्फ एक किताब क्या लिख दी, वे अचानक इतने अछूत हो गए कि तीस साल की सेवाओं पर एक झटके में पानी फेर दिय़ा। बीजेपी को यह सवाल सनातन रूप से सताता रहेगा कि अगर बीजेपी में रहते हुए जसवंत का जिन्ना पर कुछ भी सकारात्मक कहना पाप है तो फिर बीजेपी के लौह पुरुष, वहां पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाकर जो कुछ करके और कहके लौटे थे, वह क्या कोई पुण्य था।
बीजेपी से जसवंत सिंह की विदाई की खबर लगते ही देश के जाने माने पत्रकार आलोक तोमर ने जो सबसे पहला काम किया, वह जसवंत सिंह की पूरी किताब अच्छी तरह से पढ़ने का था। लेकिन उसके बाद भी उनकी समझ में यह तक नहीं आया कि जसवंत सिंह ने जो कुछ लिखा है, उसमें आखिर नया क्या है। उनकी राय में जसवंत सिंह की किताब एक विषय का बिल्कुल निरपेक्ष लेकिन तार्किक विश्लेषण है। मगर, इतिहास को अपने नजरिए से देखना कम से कम इतना बड़ा जुर्म तो हो ही नहीं सकता कि तीस साल से पार्टी से जुड़े एक धुरंधर नेता को अचानक दरवाजा दिखा दिया जाए। आलोक तोमर जसवंत सिंह को भाजपा से बाहर करने को उनकी बेरहम विदाई मानते हैं और यह भी मानते हैं कि बीजेपी में यह अटल बिहारी वाजपेयी के युग की समाप्ति का ऐलान है। और जो लोग ऐसा नहीं मानते, उनको अपनी सलाह है कि वे अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी के साथ खुद से यह सवाल करके देख लें कि क्या वाजपेयी के जमाने में भाजपा में जो उदारता और सहिष्णुता थी, वह अब खत्म नहीं हो गई। जवाब, निश्चित रूप से हां में ही मिलेगा। नहीं मिले तो कहना।
वह जमाना बीत गया, जब बीजेपी एक विचारधारा वाली पार्टी मानी जाती थी। उसके नेता देश को रह रह कर यह याद दिलाते नहीं थकते थे कि यही एक मात्र पार्टी है, जो हिंदू धर्म का सबसे ज्यादा सम्मान करती है। साथ ही बाकी सभी धर्मों का आदर करना भी सिखाती है। आज उन सारे ही नेताओं से यह सवाल खुलकर पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों वह पार्टी अपने एक वरिष्ठ नेता के निजी विचारों का सम्मान नहीं कर पाई। बीजेपी के नेताओं में अगर थोड़ी बहुत भी नैतिकता बची है तो वे सबसे पहले तो इस सवाल का जवाब दे कि आखिर आडवाणी का उनकी मजार पर शीश नवाकर जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताना वाजिब और जसवंत का जिन्ना पर लिखना अपराध और कैसे हो गया। और, जो सुषमा स्वराज और रवि शंकर प्रसाद बहुत उछल उछल कर जसवंत सिंह की विदाई को विचारधारा के स्तर पर पार्टी का वाजिब फैसला बता रहे थे, उनसे भी अपना सवाल है कि उनके लाडले लौह पुरुषजी ने जब जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताया था, तब उनके मुंह पर ताला क्यों लग गया था।
दरअसल, जो लोग राजनीति की धाराओं को समझते हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते है कि जो पीढ़ी अपने बुजुर्गों के सम्मान की रक्षा करना नहीं जानती सकते, उनकी नैतिकता भी नकली ही होती है। और बाद के दिनों में ऐसे लोगों का राजनीति में जीना भी मुश्किल हो जाता है। अपना मानना है कि बीजेपी में अब सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। जिसने अपने खून पसीने से बीजेपी को सींचा, देश पर राज करने के लिए तैयार किया। ऐसे दिगग्ज नेता भैरोंसिंह शेखावत के सम्मान को बीजेपी के आज के नेताओं ने ही चोट पहुंचाई। पूरा देश जानता है कि शेखावत के प्रति आम जनता के मन में जो सम्मान है, और देश में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है, उसके सामने राजनाथ सिंह रत्ती भर भी कहीं नहीं टिकते। लेकिन फिर भी उन्होंने शेखावत को गंगा स्नान और कुंए में नहाने के फर्क का पाठ पढाने की कोशिश की। अब जसवंत सिंह को उन्होंने राजनीति में किनारे लगाने की कोशिश की है। पार्टी से जसवंत के इस निष्कासन को अपन सिर्फ कोशिश इसलिए मानते हैं क्योंकि अपनी जानकारी में जसवंत सिंह हारने की मिलावट वाली मिट्टी से नहीं बने हैं। वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि देश जब जब चिंतन करेगा, तो जिन्ना के मामले में लाल कृष्ण आडवाणी और उनके बीच होने वाली तुलना में उनसे नीचली पायदान पर तो आडवाणी ही दिखाई देंगे। क्योंकि उन्होंने तो लिखा भर है। आडवाणी की तरह जिन्ना के देश जाकर उनकी मजार पर फूल चढ़ाने और सिर को झुकाने के बाद कम से कम यह बयान तो नहीं दिया कि जिन्ना महान थे। फिर देर सबेर बीजेपी की भी अकल ठिकाने आनी ही है। उसे भी मानना ही पड़ेगा कि आडवाणी के अपराध के मुकाबले जसवंत के जिन्ना पर विचार अपेक्षाकृत कम नुकसान देह है।
बीजेपी चाहती तो, जसवंत की किताब को जिन्ना पर उनके निजी विचार बता कर, अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने के साथ पूरे मामले को कूटनीतिक टर्न दे सकती थी, जैसा कि राजनीति में अकसर होता रहा है। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि राजनाथ सिंह के पास बीजेपी जैसी देश की बड़ी पार्टी के अध्यक्ष का पद तो है, पर, तीन साल बाद भी ना तो वे इस पद के लायक अपना कद बना पाए और ना ही उनमें कहीं से भी इसके लायक गंभीरता, योग्यता और बड़प्पन दिखाई दिया। इसी वजह से कभी वे शेखावत को राजनीति सिखाने की मूर्खता करने लगते हैं तो कभी राजस्थान की सबसे मजबूत जनाधार वाली उनकी नेता वसुंधरा राजे को पद से हटाने का अचानक ही आदेश दे बैठते हैं। राजनाथ सिंह के राजनीतिक कद को अगर आपको नापना ही हो तो भैरोंसिंह शेखावत से तो कभी उनकी तुलना करना ही सरासर बेवकूफी होगी। और भले ही राजनाथ सिंह ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का आदेश दिया हो, फिर भी उनसे तुलना करना भी कोई समझदारी नहीं कही जाएगी। और अंतिम सच यही है कि भाजपा के आम कार्यकर्ता को अपने नेता के तौर पर राजनाथ या वसुंधरा राजे में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो कार्यकर्ता का चुनाव तो वसुंधरा ही होंगी, इससे आप भी सहमत ही होंगे।
आनेवाले दिसंबर के बाद राजनाथ सिंह निश्चित रूप से बीजेपी के अध्यक्ष नहीं रहेंगे। लेकिन यह देश के दिलो दिमाग पर यह जरूर अंकित रहेगा कि उंचे कद के आला नेताओं की गरिमा को राजनाथ के काल में जितनी ठेस पहुंची और बीजेपी का सत्ता और संगठन के स्तर पर जितना कबाड़ा हुआ, उतना पार्टी के तीस सालों के इतिहास में कभी नहीं हुआ। और ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि राजनाथ सिर्फ पद से नेता है, कद से नहीं। पार्टी से निकालने का हक हासिल होने के बावजूद राजनीति में आज भी राजनाथ, जसवंत सिंह से बड़े नेता नहीं हैं। अपना तो यहां तक मानना है कि शेखावत जितना सम्मान हासिल करने और जसवंत सिंह जैसी गरिमा प्राप्त करने के लिए राजनाथ सिंह को शायद कुछ जनम और लेने पड़ सकते है। ऐसा ही कुछ आप भी मानते होंगे। और, यह भी जानते ही होंगे कि जसवंत के जाने से बीजेपी कमजोर ही हुई है, मजबूत नहीं। पर आपके मानने से क्या होगा, बरबाद होती बीजेपी माने तब ना...।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Thursday, August 20, 2009

राजीव शुक्ला : क्रिकेट की राजनीति के तीसरे अंपायर

राजीव शुक्ला आज राजनीति में भी हैं, क्रिकेट में भी, पत्रकारिता में भी, खबरों के कारोबार में भी और ग्लैमर की दुनिया में भी। सैंतालीस साल की उम्र में राज्य सभा में दूसरी बार आ जाने और देखते ही देखते क्रिकेट की दुनिया पर छा जाने वाले राजीव शुक्ला ने बचपन में कंचे और गिल्ली ठंडा खूब खेला है और कानपुर के दैनिक जागरण में, बड़े भाई दिलीप शुक्ला की छत्र छाया में जब उन्होनें पत्रकारिता शुरू की होगी तो ज्यादातर लोगों की तरह उनकी उम्मीदें बड़ी भले ही हों लेकिन खुद उन्हें अंदाजा नही होगा कि आखिर उनकी नाव किस घाट पर जा कर लगेगी। आज वे सफल भी हैं, समृध्द भी और प्रसिध्द भी लेकिन यह नही कहा जा सकता कि उनकी नाव घाट पर लग गई है। अभी बहुत सारी धाराएं, बहुत सारे भंवर और बहुत सारे प्रपात रास्तें में आने हैं और राजीव शुक्ला को उन्हें पार करना है। इतना तो है कि 1983 में दिल्ली के एक क्रांतिकारी अखबार में नौकरी के लिए इंटरव्यूह देने आए सभी लोगों के बीच कम से कम ढाई हजार रुपए की मांग करने की आम सहमति बनाते धूम रहे राजीव शुक्ला आज अपने टी वी चैनल में लोगों को आसानी से ढाई-ढाई लाख रुपए की नौकरियां देते हैं और एक जमाने में स्कूटर तक नही खरीद पाने वाले राजीव अब हवाई जहाज से नीचे नही उतरते और आम तौर पर उन्हें चार्टड जहाजों में भी देखा जाता है।इन दिनों जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में वर्चस्व की लड़ाई जोर शोर से चल रही है, भारतीय क्रिकेट टीम कभी शेर हो जाती तो कभी ढेर हो जाती है- ऐसे दौर में बी सी सी आई के ताकतवर उपाध्यक्ष और सबसे प्रसिध्द चेहरे के तौर पर होने के बावजूद राजीव शुक्ला विवादों के घेरे में नही आते। वे खुद कांग्रेसी होने के बावजूद बीजेपी के करीबी ललित मोदी और राष्ट्रवादी कांग्रेस के शरद पवार के साथ आसानी से चल लेते है और यह बात बहुतों को आश्चर्य में भी डालती है, लेकिन उन्हें नही जो राजीव शुक्ला की फितरत को जानते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो काफी आसानी से राजीव शुक्ला के सब तरह के उत्थान को जुगाड़ और अवसरवाद करार देकर अपना कलेजा ठंडा कर लेते हैं। ऐसे लोगों के पास इसके बारे में कुछ तर्क और कुछ कारण भी जरूर होगें, लेकिन उनके लिए यह समझना कठिन है कि अस्तित्व और आकांक्षा के अद्वैत को साधने के लिए निर्गुण और सगुण का नही निराकार और साकार में से साकार का चुनाव करना पड़ता है। राजीव शुक्ला ने राजनीति के साकार पात्रों को साधा और एक बड़ी बात यह है कि धाराएं भले ही अलग हो गई हो, नाता किसी से नही तोड़ा। पता नही कब और किस मोड़ पर वे यह ध्रुव सत्य सीख गए थे कि असली निवेश तो रिश्तों में किया गया निवेश ही होता है। जब वे राज्य सभा का पहला चुनाव निर्दलीय लड़े और बड़े बड़े धन्ना सेठों को हरा कर सबसे ज्यादा वोटों से जीते, तब यह सच पहली बार उनके संदर्भ में सामने आया था।
राजीव शुक्ला के बहाने समकालीन राजनीति का और खेल की राजनीति का एक पूरा खाका आप खींच सकते हैं। वे जब किराए के एक मकान में, सरकारी कॉलोनी में कई दोस्तों के साथ रहते थे तो अखबार के काम के अलावा उनका ज्यादातर समय अपनी निजी संपर्क डायरेक्टरी विकसित करने में बीतता था। दिल्ली आ कर वे सबसे पहले पड़ोसी मेरठ जिले के संवाददाता बने और देखते ही देखते मेरठ, खबरों के अखिल भारतीय नक्शे पर आ गया। फिर वे रविवार में गए और जिस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह को निरमा साबुन से भी ज्यादा साफ समझा जाता था और उन्हें जयप्रकाश नारायण के उत्ताराधिकारी के तौर पर स्थापित करने की समवेत कोशिशें चल रहीं थी, राजीव शुक्ला ने रविवार की आवरण कथा में वीपी सिंह के बारे में एक सच लिख कर सबके छक्के छुड़ा दिए। वह सच यह था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक नाटकीय क्षण में अपनी बहुत सारी जमीन विनोबा भावे की भूदान यात्रा में दान कर के यश कमाया था और फिर जब उन्हें लगा था कि गलती हो गई तो उन्होनें अपनी पत्नी की ओर से अपने ही खिलाफ हलफनामा दिलवाया कि उनका पति पागल है और उसके द्वारा दस्तखत किए गए किसी भी दस्तावेज को कानूनी मान्यता नही दी जाए। राजीव शुक्ला को कांग्रेस का एजेंट घोषित कर दिया गया मगर वे यह मुहावरा चलने के बहुत साल पहले मुन्ना भाई की तर्ज पर लगे रहे। कम लोग जानते हैं कि शाहबानों प्रसंग में बागी आरिफ मोहम्मद खान और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच संवाद का एक सबसे बड़ा सेतु भी राजीव ही थे और यही उनके इस परिवार से संपर्क स्थाापित होने की शुरूआत थी।क्रिकेट की दुनिया में राजीव शुक्ला को स्वर्गीय माधव राव सिंधिया लाए थे। राजीव ने इस खेल की महिमा और ताकत को पहचाना और इसके सहारे कई राजनैतिक मंजिलें भी पार की। इस बीच वे अचानक बहुत हाई प्रोफाइल हो चुके थे। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच चाहे जैसी तनातनी चलती रहे, लेकिन दोनों की विदेश यात्राओं में राजीव की सीट पक्की होती थी। दिल्ली की पीटीआई बिल्डिंग में अपने ऑफिस में काम करते वक्त पीटीआई की एक बहुत दमदार पत्रकार अनुराधा से पहचान हुई, रिश्ता बना, आगे बढ़ा और आज तक बना हुआ है। अनुराधा टीवी में चैनलों की क्रांति होने के पहले से ही उसमें दिलचस्पी रखती थी और पीटीआई टीवी के नाम से शुरू हुई संस्था में उनकी मुख्य भूमिका थी। राजीव शुक्ला से भी उन्होनें दूरदर्शन पर बड़े लोगों से अंतरग मुलाकातों का कार्यक्रम रूबरू शुरू करवाया। इस कार्यक्रम को आज देश के सारे टीवी चैनलों पर चलने वाले टॉक शो का पूर्वज माना जा सकता है। इसी दौरान वे फिल्मकार रमेश शर्मा के टीवी शो के लिए निकले और चंबल घाटी पर कई ऐपीसोड की किस्तें बना कर ले आए। राजीव शुक्ला की कहानी हमारे समय की राजनीति की एक प्रतिनिधि कथा है। बहुत सारे परिचित और अपरिचित हैं जो राजीव शुक्ला की छवि को पच्चीस साल पुराने सांचे में रखकर देखते हैं। जब वे दिल्ली की एक्सप्रेस बिल्डिंग के बगल के एक ढाबे में दोस्तों के साथ खाना खाते थे और अपने हिस्से का दाम चुकाने के लिए चिल्लर की तलाश करते थे। नए अवतार में राजीव शुक्ला पुराने ही हैं, मगर उनकी एक छवि में बहुत सारी छवियां समा गई हैं। उनके दोस्तों में अब शाहरुख खान भी हैं जो अमरिका के किसी एयर फोर्स पर फंसतो हैं तो राजीव शुक्ला को फोन करते हैं और विजय माल्या भी, जो चार्टर्ड उड़ानों के लिए उनको अपने हवाई जहाज देते रहते हैं। मुकेश अंबानी से उनकी दोस्ती है और अंबानी कुटुंब की राजमाता कोकिला बेन उन पर विश्वास करती है। तमाम आपसी विरोधाभासों के बावजूद उनकी इतनी निभती है कि अंबानी समूह के अंग्रेजी अखबार ऑब्जर्बर के संपादक वे सांसद बनने के बाद तक बने रहे। वैसे, हिंदी मीडियम में पढे और ज्यादातर हिंदी की ही पत्रकारिता करने वाले राजीव शुक्ला ने इतनी धमाकेदार अंग्रेजी कब और कहां से सीख ली, यह जरुर सबके लिए रहस्य बना हुआ है।संसद की उनकी परिचय पुस्तिका में आज भी उनका पेशा पत्रकारिता ही लिखा हुआ है। रिडिफ वेबसाईट ने तो उन्हें पिछले पंद्रह साल से भारत में सबसे ज्यादा प्रभावशाली संपर्को वाला पत्रकार घोषित किया हुआ है। राजीव शुक्ला लिखने के मामले में प्रभाष जोशी या राजेन्द्र माथुर नही हैं और न ही उनकी रिर्पोटिंग में उनके अग्रज उदयन शर्मा वाली तल्लीनता और करीबी साथी आलोक तोमर वाली धार है । लेकिन उनके लिखने, राजनीति करने और क्रिकेट से ले कर कांग्रेस तक के उलझे हुए समीकरण सुलझाने में एक त्वरित तात्कालिकता जरुर है, जो उन्हें किसी का भी विकल्प बनने की मजबूरी में नही फंसाती।
बचपन में वे अपने कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम कितने गए हैं यह तो पता नही, लेकिन क्रिकेट की दुनिया में अपनी प्रासंगिकता बनाने के लिए वे टीम के मैनेजर भी बने और क्रिकेट की राजनीति के बहुत सारे निशाने साधने वाले तीरंदाज भी। जगमोहन डालमिया और शरद पवार के बीच डालमिया के भूतपूर्व शिष्य इंद्रजीत सिंह बिंद्रा की वजह से जो लफड़ा शूरू हुआ , उसे निपटाने में राजीव शुक्ला की बड़ी भूमिका रही । और आपने गौर किया होगा कि डालमिया ने शरद पवार, निरंजन शाह और उनकी मंडली पर सैकेंड़ों करोड़ के घोटाले के आरोप लगा डाले हैं, शरद पवार को तो उन्होनें मुशर्रफ से बड़ा तानाशाह कह डाला है लेकिन इस शत्रु सूची में राजीव शुक्ला का नाम नही है। राजीव शुक्ला क्रिकेट की राजनीति के लगभग अदृश्य रहने वाले तीसरे अंपायर हैं। आख़िर राजीव शुक्ला भी तो अपने जनसत्ता के ही आदिवासी हैं।(शब्दार्थ)

Saturday, August 8, 2009

पहरेदारों के पतित होने पर सोनिया गांधी की चिंता

निरंजन परिहार
भले ही दुनिया भर में हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का झंडा लिए घूमते हों, और अपनी संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हों। लेकिन हमारे सांसद, लोकतंत्र की गरिमा और उसके मंदिर की मर्यादाओं का कितना ख्याल रखते हैं, यह सोनिया गांधी की पीड़ा से साफ जाहिर है। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को लेकर सोनिया गांधी की पीड़ा, पहरेदारों के पतीत हो जाने का सबूत है। काग्रेस अध्यक्ष ने सांसदों की सदन से गायब रहने की आदत से आहत होकर गैर हाजिर रहनेवालों को कड़ी फटकार लगाई है। राहुल गांधी ने भी सदन में सांसदों की कम उपस्थिति को काफी गंभीरता से लिया है। सोनिया गांधी ने काग्रेस के सीनियर नेताओं से सदन में अपने सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने को कहा है। कोई भले ही उनकी इस तकलीफ के कुछ भी अर्थ निकाले, लेकिन इतना तय है कि हमारे सांसदों का संसदीय कार्यवाही में कम और बाकी कामों में ध्यान ज्यादा रहने लगा है। जिनको देश चलाने के लिए चुना गया हो, वे ही जब राष्ट्रीय फैसलों के निर्धारण में ही रूचि नहीं लेंगे, तो लोकतंत्र की गरिमा को मिट्टी में मिलने से कैसे बचाया जा सकता है ?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस के सांसदों की ही सदन में उपस्थिति अपेक्षा से कम रही हों। संसदीय मर्यादाओं, लोकतांत्रिक गरिमा और नैतिक मूल्यों की दुहाई के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाली पार्टियों के सांसदों की भी सदन में हाजिरी का हाल ऐसा ही है। उनके नेता हार का गम अब तक भुला नहीं पाए हैं। इसिलिए शायद, इस गंभीर विषय पर भी वे ध्यान नहीं दे पाए हों। पर, यह तो सबके सामने है कि सोनिया गांधी ने सबसे पहले गौर किया, और तत्काल सख्त कदम उठाने को भी कहा।
वैसे, ये हालात कोई पहली बार सामने नहीं आए हैं। पहले भी ऐसा होता रहा है। ज्यादा पीछे नहीं जाएं और अभी पिछली लोकसभा की ही बात कर लें। तो, सदन में जब अंतरिम बजट जैसे देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस हो रही थी, तो सत्ता पक्ष के ही नहीं विरोधी दलों के सांसदों की भी सदन में बहुत ही कम संख्या थी। और जब इस गंभीर बहस के दौरान सदन खाली-खाली सा था, तो कुछ सांसद दक्षिण दिल्ली के किस डिजाइनर फैशन स्टोर में किस-किस के लिए कैसे-कैसे कपड़े खरीद रहे थे, और अपने चमचों के साथ किस रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे, अपने पास इसके भी पुख्ता सबूत हैं। मतलब यह है कि ज्यादातर सांसदों का ध्यान देश के सुलगते मुद्दों में कम और अपनी जिंदगी को संवारने पर ज्यादा है। हमने देखा है कि हमारे ज्यादातर सांसदों में सवाल पूछने और संसद में बोलने के मामले में भी कोई खास रूचि ही दिखाई नहीं देती। बहस में हिस्सा लेने में भी पहले के मुकाबले उत्साह बहुत ही कम हुआ है। और आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि कुछ साल पहले शुरू हुआ यह सिलसिला अब, बहुत तेजी से नए सांसदों को भी अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है।
पिछली लोकसभा के आंकड़ों पर निगाह डालें तो सिर्फ 175 सांसद ही ऐसे थे, जिन्होंने सदन में किसी बहस में हिस्सा लिया और सवाल पूछे। बाकी 371 सांसद तो मदारी के खेल की तरह पांच साल तक संसद को निहारने के बाद खुद को धन्य मानकर वापस घर लौट गए। जो विधेयक संसद में पेश हुए, उनमें से 40 फीसदी विधेयकों को तो सिर्फ एक घंटे से भी कम समय की चर्चा में पास कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन पर कोई बहस करने वाला ही नहीं था। हालात तो ऐसे भी कई बार आए हैं कि बिना बहस के ही कई विधेयकों को पारित करना पड़ा, और यह सिलसिला भी लगातार बढ़ता जा रहा है। यह सब संसदों के सदन में ना जाने की वजह से हो रहा है। संसद में जाएंगे, तभी वहां पेश किए जाने वाले किसी विषयों को समझेंगे। और समझेंगे, तभी उस पर बोल भी सकेंगे। पिछली लोकसभा का तो आलम यह था कि ग्यारहवें और बारहवें सत्र में तो सिर्फ 25 फीसदी सांसद ही लोकसभा में ठीक-ठाक हाजिर रहे। बाकी 75 फीसदी सांसदो की 16 दिन से भी कम हाजिरी रही। दो बार राज्य सभा में रहने के बाद इस वार लोकसभा के सांसद चुने गए हमारे साथी संजय निरुपम भी मानते हैं कि संसद में बोलने वाले आज सिर्फ उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। हालात यही रहे तो आने वाले सालों में सारे विधेयक बिना किसी चर्चा के ही पारित करने पड़ सकते हैं। सोनिया गांधी कोई यूं ही चिंतित नहीं हैं। वे महसूस करने लगी है कि हमारी संसद सत्ता के शक्ति परीक्षण के केंद्र में तो आज भी है। लेकिन वैचारिक चिंतन और सार्थक बहस के मंच के रूप मे उसकी भूमिका खत्म होती जा रही है। काग्रेस के सांसदों को इसीलिए उन्होंने सचेत किया है।
पार्टियों से जहां बैठने के लिए टिकट लिया और जनता ने जहां के लिए चुनकर भेजा। उस संसद में जाने से ही हमारे लोकतंत्र के ये पहरेदार बचने लगे हैं। इसे पहरेदारों का पतित होना ही कहा जाएगा। यह पतन और आगे ना बढ़े, सोनिया गांधी ने इसीलिए तत्काल कदम उठाने के आदेश दिए हैं। देश ने ही नहीं, पूरी दुनिया ने हमारे सांसदों को कैमरों के सामने रिश्वत लेते देखा। दूसरे की पत्नी को कबूतर बनाकर दुनिया घुमाते हुए हमने अपने सांसदों को देखा। और दलाली करते हुए भी रंगे हाथों अपने सांसदों को सारे देश ने देखा। ऐसे में, अपने आपसे यह सवाल पूछने का हक तो हमको है ही कि संसद में बैठने के लिए हमने कहीं दलालों को तो नहीं चुन लिया? हम अपना सीना तान कर दुनिया भर में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गर्व करते हैं। लेकिन, जब कोरम पूरा ना होने की वजह से लोकसभा की कारवाई कई-कई बार स्थगित करनी पड़ती है, तो हमारे सांसदों को शर्म क्यों नहीं आती ?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Saturday, August 1, 2009

राजनीति की तरह मीडिया का भी कबाड़ा

निरंजन परिहार
प्रभाष जोशी भन्नाए हुए हैं। उनका दर्द यह है कि पत्रकारिता में सरोकार समाप्त हो रहे हैं। हर कोई बाजार की भेंट चढ़ गया है। क्या मालिक और क्या संपादक, सबके सब बाजारवाद के शिकार। कभी देश चलानेवाले नेताओं को मीडिया चलाता था। आज, मीडिया राजनेताओं से खबरों के बदले उनसे पैसे वसूलने लगा हैं। देश के दिग्गज पत्रकार कहे जाने वाले प्रखर संपादक प्रभाषजी इसीलिए बहुत आहत हैं। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, जैसा चल रहा है, तो सरोकारों को समझने वाले लोग मीडिया में ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेंगे। हालात वैसे ही हो जाएंगे, जैसे राजनीति के हैं। राजनीति की तरह मीडिया में भी और पद और अपने कद के लिए कोई भी, कुछ करने को तैयार है।
यह विकास की गति के अचानक ही बहुत तेज हो जाने का परिणाम है। अपना मानना है कि भारत में अगर संचार से साधनों का बेतहाशा विस्तार नहीं हुआ होता, तो आज जो हम यह, भारतीय मीडिया का विराट स्वरूप देख रहे हैं, यह सपनों के पार की बात होती। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार हाल ही के कुछ सालों में बहुत तेजी से फला-फूला है। यह नया माध्यम है। सिर्फ दशक भर पुराना। इसीलिए इसमें जो लोग आ रहे हैं, उनमें नए लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। लड़के आ ही रहे हैं, तो लड़कियां भी बड़ी तादाद में छा रही हैं। अपन इनको संचार क्रांति की नई पैदावार मानते है। इस नई पैदावार के लिए, हर बात नई है। जिनको पता ही नहीं है कि सरोकार शब्द का मतलब क्या होता है, उनसे करोकारों की उम्मीद पालना भी कोई खास समझदारी का काम नहीं होगा। नए जमाने के इस नए माध्यम में तेजी से अपनी जगह बनाती इस नई पीढ़ी में बहुत तेजी से आगे बढ़ने की ललक ने ही इस पीढ़ी का काफी हद तक कबाड़ा भी किया है। सफलता जब सही रास्ते से होते हुए सलीके के साथ आती है, तो ही वह अपने साथ सरोकार भी लेकर ही आती है। लेकिन मनुष्य जब सिर्फ आगे बढ़ने की कोशिश में खुद को बेतहाशा झोंक देता हैं तो वह कुछ मायनों में आगे भले ही बढ़ जाए, मगर उसकी कीमत भी उसे अलग से चुकानी पड़ती है। और मीडिया में ही नहीं किसी भी पेशे में आगे बढ़ने की यह ललक अगर महिला की हो तो फिर रास्ता और भले ही आसान तो हो जाता है। पर, उसकी कीमत की तस्वीर फिर कुछ और ही हो जाती है। दरअसल यह मीडिया की बदली हुई तस्वीर है। और यही असली भी है। बाजारवाद ने मीडिया को ग्लैमर के धंधे में ढाल दिया है। और सेवा को कोई स्वरूप या फिर मिशन, जब धंधे का रूप धर ले, तो सरोकारों की मौत बहुत स्वाभाविक है। ग्लैमर के बाजार की चकाचौंध वाले मीडिया का भी इसीलिए यही हाल है।
जो लोग ग्लैमर की दुनिया में हैं, वे इस तथ्य से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं कि दुनिया के हर पेशे की तरह इस धंधे में भी दो तरह के लोग है। एक वे, जो तरक्की के लिए तमाम हथकंडे इस्तेमाल करके किसी मुकाम पर पहुँच जाना चाहते हैं। और अकसर पहुंच भी जाते है। दूसरे वे हैं, जिनके लिए सफलता से ज्यादा अपने भीतर के इंसान को, अपने ईमान के और अपनी नैतिकता को बचाए रखना जरूरी होता है। ऐसों को फिर तरक्की को भूल जाना पड़ता है। अब पूंजीवाद के विस्तार और बाजारीकरण के दौर में नए जमाने का यह नया माध्यम सेवा और मिशन के रास्ते छोड़कर ग्लैमर के एक्सप्रेस हाई-वे पर आ गया है। इसीलिए, राजनीति और फिल्मों की तरह मीडिया में भी लोग अपनी जगह बनाने, उस बनी हुई जगह को बचाए रखने और फिर वहां से आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। भले ही यह बहुत खराब बात मानी जाती हो कि आगे बढ़ने और कमाने की होड़ में हर हथकंडे का इस्तेमाल करने के इस गोरखधंधे की वजह से ही उद्देश्यपरक पत्रकारिता और सरोकार खत्म हो रहे हैं। लेकिन हालात ही ऐसे हैं। आप और हम क्या कर सकते हैं। हम यह सब-कुछ बेबस होकर लाचार होकर यह सब देखने को अभिशप्त हैं। प्रभाषजी का आहत होना स्वाभाविक है। जो आदमी पूरे जनम, सरोकारों के साथ लेकर चला, वह दुखी नहीं होगा तो क्या करेगा। आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। फिर बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधान सभा चुनावों को देखकर अपने एक पुराने साथी राजनेता से पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा रगने की एक बड़ी वडह यह भी तही कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिसका मुंबई में जन्म ही अपने हाथों हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते। अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना-अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।
माना कि आज जो लोग मीडिया में हैं, उनमें से ज्यादातर वे हैं, जो पेट पालने के लिए रोटी के जुगाड़ की आस में यहां आए है। वे खुद बिकने और खबरों को बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। बाजारीकरण के इस दौर ने खासकर मेट्रो शहरों में काम कर रहे ज्यादातर मीडिया कर्मियों को सुविधाभोगी, विचार विहीन, रीढ़विहीन, संवेदनहीन और अमानवीय बना दिया है। यह सब आज के अखबारों की शब्दावली और न्यूज टेलीविजन की दृश्यावली देखकर साफ कहा जा सकता है। हमारे साथी पुण्य प्रसून वाजपेयी की बात सही है कि कोई दस साल पहले हालात ऐसे नहीं थे। आज भले ही मीडिया का तकनीकी विस्तार तो खासा हुआ है। लेकिन पत्रकारों के दिमागी दायरे का उत्थान उतना नहीं हो पाया है। एक दशक पहले तक के पत्रकारों के मुकाबले आज के मीडिया जगत को चलाने वाले मालिकों और काम करने वाले लोगों की सोच में जमीन आसमान का फर्क है। तब राजेन्द्र माथुर थे। उदयन शर्मा थे और एसपी सिंह सरीखे लोग थे। इनकी ही जमात के प्रखर संपादक प्रभाष जोशी आज भी है। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों, राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल काम किया और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में रहकर उनका भरपूर प्यार पाया। लेकिन मीडिया के बाजारवाद की भेंट चढ़ जाने को अपन ने स्वीकार कर लिया है। अपन ना तो पुराने हैं और ना ही नए। अपन बीच के हैं। इसलिए, इस बदलाव को प्रभाषजी की तरह आहतभाव से देखकर दुखी तो बहुत होते हैं, पर ढोना नहीं चाहते। अपन जानते हैं कि ना तो अपन बिक सकते हैं, और ना ही अपन से कुछ बेच पाना संभव हैं। लेकिन यह भी मानते हैं कि बिकने और बेचने को देखकर अपने दुखी भी होने से आखिर आज हो भी क्या जाएगा। पूरा मीडिया ही जब मिशन के बजाय प्रॉडक्ट बन गया है, तो आप अकेले कितनों को सुधार पाएंगे, प्रभाषजी। पूरा परिदृश्य ही जब पतीत हो चुका हैं। और, आप यह भी जानते ही हैं कि हालात में सुधार की गुंजाइश भी अब कम ही बची है। क्योंकि जहां से भी मिले, जैसे भी मिले, आज के ज्यादातर मालिकों को पैसा ही सुहाने लगा है। यह नया जमाना है। आज ना तो आप और ना ही हम, किसी नए रामनाथ गोयनका जैसे किसी मालिक को पैदा कर सकते, प्रभाषजी। जो, नोटों की गड्डियों के ठोकर मारकर सरोकारों के लिए संपादक के साथ खड़ा होकर सत्ता से पंजा भिड़ा ले। अपना मानना है कि हजार हरामखोरों के बीच अगर एक भी भला आदमी कहीं किसी कोने में भी बैठा हुआ मिला तो बाकियों की इज्जत भी बची रहती है। तो फिर, आप तो आज भी प्रज्ञा पुरुष की तरह मुख्य धारा में हैं, प्रभाषजी। मीडिया की दुर्गति देखकर अपनी जान थोड़ी कम जलाइए। इस भ्रष्ट हो रहे दौर में आज आपकी जरूरत कुछ ज्यादा ही है। ताकि हजार हरामखोरों के के बावजूद, मीडिया की इज्जत बनी और बची रहें। वरना, तो फिल्मों और राजनीति की तरह इसका भी, करीब-करीब कबाड़ा तो हो ही चुका है। हुआ है कि नहीं।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)